तिब्बत में छिपा है तंत्र ज्ञान

By: Nov 16th, 2019 12:13 am

तब डोलमा आ गया। उसने परिचय दिया। युवती का नाम जिसी है। यहां की परंपरागत साधिका है। उसकी मां भी थी। जिसी तंत्र-मंत्र साधना में भी सभी प्रकार का सहयोग देती है। जिसी का रूप, यौवन और देह की बनावट अत्यंत आकर्षक थी। शयन की व्यवस्था वहीं कर दी गई। जिसी कई बार आई गई। मैंने उसे इधर-उधर आते-जाते देखा। रह-रहकर वह मुस्कान के बाण भी छोड़े जा रही थी…

-गतांक से आगे…

वह एकदम पास आ गई। उसने थाल नीचे रख दिया। मैं उसमें रखी सामग्री आश्चर्य से देखने लगा। वह पास ही खड़ी यौवन की मादक गंध बिखेर रही थी। मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोली, ‘कुशोक (श्रीमान)…उबला अलू-कान का रोटी (कनक की रोटी)…खाने को।’ थाली काष्ठ की थी। उस पर नक्काशी कर विचित्र आकृतियां बनाई गई थीं। गिलास भी ऐसा ही था। उसमें पानी था। ‘खाना…ठीक।’ और वह अपनी छोटी-छोटी आंखें झपककर चली गई। उसकी चाल से यौवन छलक रहा था। भूख तो लगी थी, पर भोजन का अजब रंग-रूप था। साहस करके मैंने जरा-सा चखा। कमाल का स्वाद था। फिर तो खाता ही गया। कुछ देर बाद वह फिर आ गई। ‘खाना खा लिया…कैसा…ठिक…मेरा बनाया है। अच्छा लगा?’ वह मुस्कराई। ‘हां, अच्छा था।’ ‘आराम करना।’ वह थाल उठाकर चली गई। तब डोलमा आ गया। उसने परिचय दिया। युवती का नाम जिसी है। यहां की परंपरागत साधिका है। उसकी मां भी थी। जिसी तंत्र-मंत्र साधना में भी सभी प्रकार का सहयोग देती है। जिसी का रूप, यौवन और देह की बनावट अत्यंत आकर्षक थी। शयन की व्यवस्था वहीं कर दी गई। जिसी कई बार आई गई। मैंने उसे इधर-उधर आते-जाते देखा। रह-रहकर वह मुस्कान के बाण भी छोड़े जा रही थी। रात बीत गई। घर से हजारों मील दूर, रहस्यमय पहाड़ी प्रदेश में…शायद भाग्य का खेल या मन की लगन ही मुझे यहां तक खींच लाई थी। सारनाथ (वाराणसी) में नोमग्याल से भेंट हो गई थी। वे अपने यहां आने का आमंत्रण दे गए थे। औपचारिकता के नाते मैंने हामी भर दी थी। पुष्कर राज में डोलमा मिल गया। उसने अपने गुरु नोमग्याल के निमंत्रण का स्मरण कराया। ‘आपको जरूर आना होगा।’ अब तो स्वीकार करना ही पड़ा। फिर मेरे मित्र ने तिब्बत के रहस्यमय तंत्र के विषय में बतलाया तो उत्सुकता और जाग उठी। इस कारण चल पड़ा। लंबा सफर तय कर मैं ल्हासा के उपनगर थापा आया। वहीं डोलमा प्रतीक्षा में था। रात और बीत गई। उजली रात थी। वातावरण अपरिचित…अंजान…आंखों में नींद न थी। पलकें बंद थीं, पर नींद न थी। हवा में मीठी-मीठी, भीनी-भीनी महक थी। कोई दबे पांव चलता हुआ दिखाई दिया। मैं उठकर बैठ गया। फिर धीमा स्वर आया- ‘मैं…जिसी…नींद नहीं आई…।’ वह समीप आ गई। मद्धिम प्रकाश में उसका चेहरा दीप्त था। ‘हां।’ मैंने संक्षिप्त -सा उत्तर दिया। वह मेरी शय्या पर बेझिझक बैठ गई। ‘अमको भी नई आती। सब टूटता है।’ उसने घातक अंगड़ाई ली। उसके शिखर उरोज और उन्नत हो गए। उसका निशाना अचूक था। क्रमशः

 


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