दूर के ढोल

By: Nov 29th, 2019 12:05 am

पूरन सरमा

स्वतंत्र लेखक

वे महान थे। वे किसी से न ईर्ष्या रखते थे न द्वेष। ईश्वर की तरह व्यवहार करते थे। मानवता उनमें कूट-कूट कर भरी हुई थी। किसी भी दुखियारे को देखते और करुणा से उनका मन पसीज उठता। महान वे इसलिए भी थे, क्योंकि वे स्वयं को साहित्यकार भी मानते थे। करेला ऊपर से नीम चढ़ा, परंतु वे कभी इस अहंकार को उजागर नहीं होने देते थे। बेशक उन्हें साहित्यकार होने का प्रखर घमंड था। घमंड के लिए उनके पास अन्य कुछ था भी नहीं। साहित्यकार होने की मुहर उन पर इसलिए भी अंकित थी कि उन्हें एक संस्थान ने पुरस्कार भी दिया था। उनकी साहित्य सेवा रेखांकन योग्य हो गई थी। रेलों पर सरपट लिखने के कारण एक बार रेल मंत्रालय ने भी उन्हें सांत्वना पुरस्कार दिया था। वे उस समय बहुत नाराज हुए थे। रेल मंत्रालय को उलटा उलाहना दिया कि रेलों पर लिखने वाले अकेले महान साहित्यकार हैं तो उन्हें सांत्वना देकर क्यों टरका दिया? लेकिन रेल मंत्रालय ने उनको कोई जवाब न देकर अपनी गलती स्वीकार की। चूंकि वे किसी से ईर्ष्या तो रखते ही नहीं थे, इसलिए जिसने रेल मंत्रालय का पहला पुरस्कार जीता था, उसे बधाई का पत्र भी नहीं डाला। उल्टे प्रथम पुरस्कार वाले ने उन्हें बधाई पत्र भेजा तो उन्होंने इसे अन्यथा लिया और बुरी तरह नाराज होकर बधाई पत्र को फाड़ दिया। मानवतावादी साहित्यकार होने से उन्होंने अपने लेखन में इंसानियत का शंखनाद खूब किया है। एक उपन्यास लिखा तो इतना अद्भुत की प्रतिशोध की ज्वाला उसमें    साफ  झलकती दिखाई देती है, वे ईर्ष्या करते नहीं, लेकिन ईर्ष्यालु साहित्य विपुलता से रचते हैं। मेरे तो वे इतने अनन्य है कि गाहे-बगाहे मुझ पर लिख कर अपने भीतर की ईर्ष्या की आग को शांत करते रहते हैं। मैं उनके लिखे से सबसे ज्यादा डरता हूं। इसलिए उनसे ज्यादा बात भी नहीं करता, पता नहीं कब कोई बात निकल जाए और कौन सी बात उन्हें लग जाए। बस फिर वे मुझ पर व्यंग्य लिख मारते हैं और यह तो पता ही है कि व्यंग्य कितना पैना होता है और वह भी उनका लिखा हुआ। इतना पैना दंश कि मन की गहराई तक उतर जाता है और कई-कई दिन तक तबीयत खराब रहती है। मानवता की दुहाई देकर वे घडि़यालों की तरह रोते हैं। लोग समझते हैं वे वाकई दुखी होकर रो रहे हैं। अपनी काया से भी वे लगभग घडि़याल जैसे ही लगते हैं। अपना मुंह खोलकर मुंह उठाकर जब वे अपने अहंकार को थोड़ी देर के लिए घर पर रखकर मेरे घर आते हैं तो मुझे खड़ा होकर विनम्रता से उनका स्वागत करना पड़ता है। उनका साहित्य दर्प और अधिक ऊंचाई पर ले जाता है। 


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