नींद से जागने का आह्वान

By: Nov 14th, 2019 12:05 am

सुरेश सेठ

साहित्यकार

यह देश पिछले साठ वर्ष से सो रहा था, हमने उसे जगा दिया। सुना था कि कुंभकर्ण छह महीने सोता था और छह महीने जागता था। जब श्री राम से लड़ने के लिए महाबलि रावण ने उसे जगाया था, तो न जाने कितना शोर-शराबा, कितना हो-हल्ला करना पड़ा था। कानफाड़ बैंड-बाजे बजे, तभी महावीर कुंभकर्ण आंखें मलते हुए उठे, और श्री राम की वानर सेना से लोहा लेते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। अब हमारे चुनावरण का क्या परिणाम होता है, यह तो हम अभी से नहीं कह सकते, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि साठ बरस से कुंभकर्णी निद्रा में सोये हुए इस देश को जगाने के लिए हमने न जाने कितने शतक नाटकीय भाषण किए और इतने जुमलों का इस्तेमाल करना पड़ा, कि अब उन्हें अनगिनत कहते हुए हमें लज्जा आती है। देश जब सोया हुआ था तो उसकी जीर्ण-शीर्ण अवस्था देख कर हमें दया आ रही थी। गद्दी पर बैठे महानुभाव अपने घपला-घोटाला विशेषज्ञों की सहायता से चोरी का माल लाठियों के गज बेच रहे थे, और इसके लिए भारत उदय या चमकते हुए भारत जैसे दिलासा योग्य विशेषणों का उपयोग कर रहे थे। हमने जनता को बताया कि अभागे बंधुओं, यह ऐसा भाग्य उदय है जहां सूरज की आमद चंद धनियों के प्रासादों या काले धनके सम्राटों की बंद मुट्ठियों में कैद हो गई, और आप साठ बरस लंबी रात की मौत जैसी निस्पंद विकास यात्रा को ही सुबह की मंजिल मान बैठे। इस देश की आधी आबादी युवकों की है, लेकिन वे इस अंधेरे में भोर की तलाश करते-करते मध्यजनों के चाकर बन गए। जो बचे वे नशों के अंधड़ में बहक अपने पूर्वज देवदास की आत्महंता परंपरा का वहन करने लगे। ‘काम हराम है’ और ‘अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम’ के मूलमंत्र के साथ लोग देश में सामंती संस्कृति की भव्यता से चमत्कृत हो इसे परिवर्तक की बयार मान रहे थे। हमने इस बयार को नकारा। इसे पीढ़ी दर पीढ़ी शासन करने वाली हठधर्मी को नकार एक नई सवेर के वायदे के साथ परिवर्तन के क्रांति दूतों के रूप में सत्ता के मीनारों पर एक नई कलई की तरह हम लोग उभरे। पहले इन मीनारों पर एक रहस्यपूर्ण मौन पसरा रहता था। इस मौन का माहौल लेकर कभी ‘टालू संत’ अवतरित होते थे, और कभी ‘मौनी-बाबा’। मौनी बाबा ने तो रिमोट कंट्रोल से परिचालित होकर दो शासन पारियां गुजार दीं, लेकिन जब भूखे, बेकारों, प्रताडि़त किसानों और उखड़े हुए मजूरों का हड़कंप असहनीय हो गया, तो कोलाहल के एक नए हड़कंप के साथ हमारी बड़वोली संस्कृति ने धूल मिट्टी हो रहे लोगों को जगाया। लोगों को लगा कि शायद वह वक्त आ गया, कि जब यह कहा सार्थक हो जाएगा कि ऐ खाक नशीनों उठ बैठो, वह वक्ता मुकाबिल आ पहुंचा, ‘जब ताज उछाले जाएंगे’ जब तख्त गिराए जाएंगे। ‘लीजिए साहब परिवर्तन हो गया। देखते ही देखते परिवर्तन के पहले साल गुजर गए। इससे पहले जहां एक हाथ को नहीं पता चला था कि दूसरा हाथ क्या कर रहा है, अब यह आया नारों और शोर के हुजम का युग। अब सब प्रशंसा के चैंपियन सामने आ गए।  बैताल हो गए। शार्ट कट संस्कृति इस नए युग का वह स्वर्णिम पथ बनी, जिसके द्वारा भारत की महान अतीत की परिकल्पना को स्वलाम धन्य विद्वानों ने वर्तमान को कचरा बता स्थापित करना चाहा, लेकिन ‘स्वच्छ भारत’ के नारों के बावजूद न आधुनिकता का कचरा बुहारा जा सका, और न ही अतीत की गरिमा पर लगी मिध्याचार और अधकचरी विद्वता की दीमक और फूफंद को समेटा जा सका।

 


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