न्यास साधन के बिना साधना संपन्न नहीं होती

By: Nov 2nd, 2019 12:15 am

सोलह उपचारी तांत्रिक पूजा के पश्चात न्यासादि का साधन किया जाता है। इस साधन के बाद ही तांत्रिक साधना संपन्न समझी जाती है। इस कायिक कर्म में विभिन्न कर्म सम्मिलित हैं। स्थूल शरीर की पूरी तैयारी होने पर ही सूक्ष्म शरीर तत्त्व ज्ञान की भूमिका प्राप्त करता है। इसी से वाणी एवं मन भी साधनोपयोगी क्रियाओं की वास्तविकता के निकट पहुंच जाते हैं। इस दृष्टि से सभी कर्मों में ‘न्यास’ का महत्त्व सबसे अधिक है। किसी भी कर्म के लिए विनियोग किया जाता है। उसमें जो मंत्र, स्तोत्र और कवच आदि प्रयुक्त होते हैं, उन सभी में न्यास आवश्यक माने जाते हैं। ‘देवो भूत्वा देवं यजेत्’ के अनुसार देव बनकर ही देवता की पूजा करें…

-गतांक से आगे…

न्यास साधन प्रक्रिया

सोलह उपचारी तांत्रिक पूजा के पश्चात न्यासादि का साधन किया जाता है। इस साधन के बाद ही तांत्रिक साधना संपन्न समझी जाती है। इस कायिक कर्म में विभिन्न कर्म सम्मिलित हैं। स्थूल शरीर की पूरी तैयारी होने पर ही सूक्ष्म शरीर तत्त्व ज्ञान की भूमिका प्राप्त करता है। इसी से वाणी एवं मन भी साधनोपयोगी क्रियाओं की वास्तविकता के निकट पहुंच जाते हैं। इस दृष्टि से सभी कर्मों में ‘न्यास’ का महत्त्व सबसे अधिक है। किसी भी कर्म के लिए विनियोग किया जाता है। उसमें जो मंत्र, स्तोत्र और कवच आदि प्रयुक्त होते हैं, उन सभी में न्यास आवश्यक माने जाते हैं। ‘देवो भूत्वा देवं यजेत्’ के अनुसार देव बनकर ही देवता की पूजा करें। इस आदेश का पालन भी न्यासों पर आधारित है। यहां देव बनने का तात्पर्य है : अपने शरीर में देवताओं को विराजमान करना तथा ऋषि, छंद, देवता, बीज शक्ति, कीलक और विनियोग के न्यासों द्वारा मंत्रमय देह बनाना। करन्यास, अंगन्यास, शरीरावयवन्यास, आयुधन्यास तथा मातृकामंत्राक्षर आदि न्यास साधना के अनिवार्य अंग हैं जो निश्चित स्थानों पर निश्चित देव-ऋषियों की स्थापना की भावना को पूर्ण करते हैं। उपरोक्त न्यास सभी साधनाओं तथा सभी संप्रदायों में समान रूप से स्वीकृत हैं। तांत्रिकों का मत है कि भूतशुद्धि द्वारा शरीर को शुद्ध किया जाता है और न्यासों के द्वारा मंत्रमय देवता को आत्मा में संक्रांत कर तन्मयता बुद्धि प्राप्त की जाती है। सामान्यतः सभी न्यासों में सूचित स्थानों का तत्त्वमुद्रा (अनामिका और अंगुष्ठ के अग्रभागों के सम्मिलित रूप) से स्पर्श करने का विधान है। उंगलियों के स्पर्श में केवल अंगुष्ठाग्र से नीच वाले पोर के अग्रभाग तक स्पर्श होता है। इसी प्रकार अंगुष्ठ में तर्जनी द्वारा पोर का स्पर्श करते हैं। न्यासादि का यही सृष्टिक्रम है। विशेष साधक कुलानुकूल अथवा कर्मानुकूल न्यासों में मूल पोर तक स्पर्श से संहार न्यास और मध्य पोर से ऊपर-नीचे द्वारा स्थिति न्यास करते हैं। हृदयादिन्यासों में दाएं हाथ से जो स्पर्श होता है, वह भिन्न-भिन्न मुद्राओं द्वारा संपन्न होता है। इनके अतिरिक्त जो स्वतंत्र न्यास कहे गए हैं, उनमें शरीर के निर्दिष्ट अंगों का स्पर्श मंत्रोच्चारणपूर्वक उन स्थानों में उक्त देवता का आवाहन, वहां स्थित होने की प्रार्थना और ‘वह स्थित हो गए हैं’ ऐसी भावना करके उन्हें प्रणाम करना- ये क्रियाएं एक साथ होती हैं। 


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