मसला सियासी सहमति का

By: Nov 12th, 2019 12:05 am

इन्वेस्टर मीट के बाहर कांग्रेस को कहने का अवसर मिला, तो विपक्षी आलोचना के तेवर पूरे प्रदेश की छानबीन में मशगूल रहे। मसला राजनीतिक सहमति को परखने का या एक-दूसरे के सत्ताकाल को अछूत मानकर चलने का नहीं होना चाहिए, बल्कि प्रदेश की हकीकत में राजनीति को परखने का है। साक्षरता तथा प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से हिमाचल की जनता इतनी भी नासमझ नहीं कि हर बार राजनीति की द्वारपाल बनकर अपने अवसरों, क्षमताओं तथा संभावनाओं को कुंद करती रहे। यह इसलिए भी कि प्रदेश की भावी पीढ़ी जिस हकीकत में जीने लगी है, वहां जीवन के संघर्ष अलग हैं, जबकि हिमाचल की सियासी प्रवृत्ति अलग है। युवा पीढ़ी रोजगार की कतार में अगर प्रदेश से बाहर कूच कर रही है, तो निजी क्षेत्र की बाहों में इस दायित्व का स्नेह, प्रश्रय व परिकल्पना दिखाई देती है। अब वह वक्त चला गया जब कांग्रेस बनाम भाजपा सरकारों के बीच तुलनात्मक मुकाबला स्कूलों, चिकित्सालयों, पशु औषधालयों या नई सड़कों की पैमाइश से होता था या इस एहसास में होता था कि हर सूरत राजनेता ही माई बाप हैं। इसलिए प्रदेश ने अतीत में ऐसे बहुत सारे मुद्दे गढ़ लिए जो राज्य की तरक्की के लिए अलाभकारी हैं। बाकायदा सरकारी क्षेत्र को पूजा गया और नौकरी की बिसात पर सरकारी कर्मचारी की औकात को अक्षुण्ण बना दिया गया। यानी सरकारी कर्मचारियों पर केंद्रित राजनीति की औलाद बनकर यह प्रदेश अपनी संकीर्णता के कवच में रहने लगा। उदाहरण के लिए जिसने जो चाहा कॉडर बना लिया और सरकारी दफ्तर केवल कर्मचारी हितों के सूचनापट बन गए। कर्मचारियों की किलेबंदी का सबसे मजबूत मैदान शिमला बना रहा, लिहाजा कोई भी सरकार आज दिन तक स्थानांतरण की कोई पारदर्शी नीति या नियम नहीं बना सकी। अगर धूमल सरकार ने सचिवालय कर्मचारियों को ऐसे राज्य कॉडर में डालकर, स्थानांतरण के प्रदेश स्तरीय आदेश देने चाहे, तो फाइल वही मुर्झा गई। कुछ इसी तरह के सख्त फैसलों में शांता कुमार सरकार बदनाम हो गई, क्योंकि मितव्ययता के नाम पर सरकारी खर्च पर अंकुश चाहिए। राजनीति की अपनी ख्वाहिशों ने भी ऐसे पद व पदक चुन लिए, जो आर्थिक सेहत के विपरीत हैं। निगम-बोर्डों के अलावा अनावश्यक कार्यालयों का खुलना किसी भी सूरत तर्कसंगत नहीं, खासतौर पर प्रदेश के वित्तीय ढांचे में ऐसे सुराखों की आपूर्ति जायज नहीं, लेकिन सियासत की कोई भी पारी प्रदेश के ऐसे रिसाव का विरोध नहीं करेगी। प्रदेश का मात्रात्मक विकास अगर राजनीतिक लोरियां ही सुनता रहेगा, तो फिजूलखर्जी न रोकने का बहाना सत्ता और विपक्ष के पास यथावत रहेगा। इन्वेस्टर मीट आयोजन के छिलके उस वक्त भी भारी पड़े थे, जब पर्यटन की कुछ इकाइयों का विनिवेश चर्चा बना। आश्चर्य यह कि सफेद हाथी बने पर्यटन परिसर, शिक्षण व चिकित्सा संस्थाएं अगर कम की जाएं, तो सुधारों के क्रम में प्रदेश अपने आर्थिक संसाधनों को बेहतर तरीके से इस्तेमाल कर सकता है। प्रदेश के विकास के सियासी अर्थों को वित्तीय नसीहतों के परिप्रेक्ष्य में देखना व समझना होगा और यह भी कि भविष्य की पीढ़ी को वैश्विक प्रतिस्पर्धा के अनुकूल और नजदीक कैसे पहुंचाएं। उचित शिक्षा के अति उत्तम अवसर तक युवाओं को पहुंचाने के लिए महज राजनीति नहीं, सियासी सहमति चाहिए। यह ऐसी दौड़ नहीं कि जरूरत से कहीं अधिक मेडिकल, इंजीनियरिंग या लॉ कालेज खोलकर पूरी होगी, बल्कि युवा क्षमता को पनपने तथा संवरने का मौका मिले। उदाहरण के लिए अब कहीं जाकर चैतड़ू व वाकनाघाट में आईटी पार्कों की प्रक्रिया दिखाई दे रही है, जबकि हिमाचल को अब तक आधा दर्जन ऐसे पार्क खोल देने चाहिए थे। बेंगलूर, पुणे, दिल्ली, चंडीगढ़, चेन्नई व मुंबई में कार्यरत हिमाचल के प्रोफेशनल से अगर पूछा जाए कि उनके लिए प्रदेश में आईटी पार्कों का महत्त्व क्या है, तो इन्वेस्टर मीट की सियासी आलोचना नहीं होती। पढ़ाई के दौरान ही कैंपस प्लेसमेंट की कतारों में खड़े हिमाचली छात्रों से पूछा जाए कि उनके भविष्य के लिए कितना निवेश होना चाहिए। हिमाचल के हाउसिंग या शहरी विकास के क्षेत्र में निवेश होता है, तो कितने सिविल इंजीनियर लाभान्वित होंगे। राजनीति अगर प्रदेश के यथार्थ पर खड़ा होकर सोचे, तो करीब सवा तीन सौ लो फ्लोर बसों के अपव्यय पर गंभीर चर्चा हो सकती है। प्रदेश की विभिन्न आर्थिक गतिविधियों और विकास की निरंतरता की जवाबदेही में राजनीतिक धरातल को केवल टकराव की मुद्रा के बजाय अनेक विषयों व चुनौतियों पर सहमति के रास्ते खोलने ही पड़ेंगे।


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