वजूद को तलाशती सहकारी सभाएं

By: Nov 28th, 2019 12:05 am

लाभ सिंह 

लेखक, कुल्लू से हैं

हिमाचल जहां 90 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में रहती है जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से पशुपालन और कृषि से जुड़ी है, अधिकतर लोग बागबानी भी करते हैं और यहां कई नकदी फसलें भी उगाई जाती हैं। इसके अलावा हथकरघा,  शिल्पकारिता, और न जाने कितने ऐसे आधार हैं जो सहकारिता की विशालकाय इमारत खड़ी कर सकते थे…

हाल ही में राज्य स्तरीय सहकारिता सप्ताह समारोह का आयोजन ऊना के हरोली में सहकारिता एवं सामाजिक न्याय मंत्री डा. राजीव सहजल की अध्यक्षता में पूर्ण हुआ। हिमाचल में सहकारिता का भविष्य क्या हो इस पर भी मंत्री महोदय द्वारा प्रकाश डाला गया। सहकारिता यानी आपसी सहयोग या मिलकर कार्य को पूरा करने का सिद्धांत, लेकिन यह दुख की बात है कि इस सिद्धांत को सहकारी सभाओं में वास्तविक रूप से कभी अपनाया ही नहीं गया, यह सिर्फ  सरकारी नियमों और अधिनियमों में ही बंधकर रह गया। अगर इस बात की सख्ती से सुध ली गई होती तो हिमाचल में हमारे सामने आज सहकारिता की एक अलग तस्वीर होती। जर्जर, खंडहर, बस्ते में बंद वजूद को टटोलती सहकारी सभाएं न होती। हिमाचल जहां 90 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में रहती है जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से पशुपालन और कृषि से जुड़ी है, अधिकतर लोग बागबानी भी करते हैं और यहां कई नकदी फसलें भी उगाई जाती हैं, इसके अलावा हथकरघा,  शिल्पकारिता, और न जाने कितने ऐसे आधार हैं जो सहकारिता की विशालकाय इमारत खड़ा कर सकते थे, लेकिन सोचने की बात है कि इतनी अपार संभावनाओं के बावजूद सहकारी सभाएं हिमाचल में अपने अस्तित्व को तलाश रही हैं। आए दिन सहकारी सभाओं में घपलों की खबरें समाचार पत्रों में देखने को मिलती रहती हैं। क्या कारण है कि सहकारिता की छवि इतनी धूमिल होती जा रही है? सहकारिता की शुरुआत साहूकारों के शोषण से बचने के लिए आपसी सहयोग को बढ़ावा देकर आपसी जरूरतों को पूरा करने के लिए की गई थी।

सभाएं शरण स्थली क्यों बनती जा रही हैं और कमियां कहां हैं। यह एक बड़ा सोचनीय विषय है। हालांकि 97वें संविधान संशोधन 2011 के अंतर्गत सहकारी सभाओं का गठन अनुच्छेद 19-सी 1 के अंतर्गत मौलिक अधिकार बनाया गया है। राज्य में सहकारी सभाओं के प्रबंधन और नियंत्रण के लिए सहकारिता अधिनियम 1968 और हिमाचल सहकारिता अधिनियम 2006 लागू है। इन अधिनियमों में अलग-अलग धाराओं के अलग-अलग प्रावधानों के अंतर्गत हिमाचल में सहकारी सभाओं का प्रबंधन, अधिनियमन और कार्यान्वयन सुनिश्चित किया गया है, लेकिन क्या कारण है कि सहकारिता जिसे एक आंदोलन की संज्ञा दी गई थी, उसका कुछ अपवादों को छोड़कर लोगों को अर्थ तक मालूम नहीं? क्या इसका यह मतलब है कि सहकारिता आंदोलन को हिमाचल में पूर्ण रूप से एक असफलता माना जाए? जवाब है, नहीं, राज्य में भुट्टिको जैसी प्राथमिक क्षेत्र की सफल सहकारी सभाएं भी हैं जो राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी ख्याति प्राप्त करने में सफल रही है। इसके अलावा ऊना, हमीरपुर, बिलासपुर जिलों में साख सहकारी सभाएं स्थानीय लोगों की तरक्की और विकास में एक सकारात्मक भूमिका निभा रही है। आनी और निरमंड में दुग्ध सहकारी सभाओं का कार्य भी सराहनीय माना जा सकता है। क्या इन सहकारी सभाओं को सहकारिता के विकास का मॉडल मानकर दूसरी सहकारी सभाओं की दशा व दिशा में सुधार नहीं किया जा सकता? क्या ऐसे में सहकारिता को एक बेहतर विकल्प के रूप में लोगों के बीच प्रस्तुत नहीं किया जा सकता? इस पर भी आज गौर करने की जरूरत है।

रोजगार कार्यालयों के आंकड़ों के अनुसार हिमाचल में करीब नौ लाख लोग बेरोजगार हैं, करीब तीन लाख लोगों ने पटवारी की परीक्षा के लिए आवेदन किया था और शिक्षित युवा जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा आज मनरेगा कार्य में संलग्न है। जवाब है हां। इसके लिए उचित संसाधन, सहकारिता से जुड़े अधिकारियों व कर्मचारियों को अच्छा प्रशिक्षण, मजबूत कानून, लोगों में जागरूकता के स्तर में वृद्धि लाना, आधुनिक तकनीकों का सहकारिता में समावेश, सहकारी सभाओं की कार्य संस्कृति में सुधार, शिक्षित व जागरूक व्यक्तियों को सहकारी सभाओं से जोड़ना एवं सरकारी सभाओं के सदस्यों के लिए भी प्रशिक्षण की व्यवस्था होना आदि आवश्यक है। सहकारी सभाओं की लोकतांत्रिक कार्यपद्धति बनी रहे इसके लिए अंकेक्षक व अन्य विभागीय कर्मचारियों का निष्पक्ष व निस्वार्थ होना भी अति आवश्यक है।

सहकारी सभाओं के विकास व कार्यों में वृद्धि के लिए प्रबंधक समिति सदस्यों का निस्वार्थ व निष्पक्ष होने के साथ-साथ सहकारी सभाओं के कर्मचारियों का ईमानदार होना भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। विभागीय निर्देशों का उल्लंघन करने व नियमों के विपरीत कार्य करने वाली सहकारी सभाओं व विभागीय कर्मचारियों और अधिकारियों के लिए भी सख्त सजा का प्रावधान होना चाहिए। लेकिन कोई भी अधिकारी या कर्मचारी कार्य तभी बेहतर ढंग से कर पाएगा यदि उसे अच्छा प्रशिक्षण दिया गया हो। अतः सरकार को प्रशिक्षण के बेहतर विकल्प उपलब्ध कराने पर भी विचार करना चाहिए। सहकारी सभाओं को अधिक स्वायत्तता देने पर भी विचार किया जा सकता है जिसके लिए नियमों व अधिनियम में कुछ संशोधन करने की आवश्यकता होगी, लेकिन उनकी जवाबदेही को और अधिक सुनिश्चित किया जाना चाहिए और साथ ही निष्क्रिय पड़ी सहकारी सभाओं को बंद करने की प्रक्रिया को सरल किया जाना चाहिए।  एक तरफ  जहां सहकारिता की कार्य पद्धति में पारदर्शिता आएगी वहीं लोगों का सहकारिता के प्रति भरोसा बढ़ेगा जो आगे चलकर सहकारिता आंदोलन को गति प्रदान करने के लिए एक सकारात्मक भूमिका निभा सकता है।


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