विवाद से परे है ईश्वर का अस्तित्व

By: Nov 2nd, 2019 12:15 am

कर्मफल न चाहते हुए भी मिलते हैं। कोई नहीं चाहता कि उसे अशुभ कर्मों के फलस्वरूप दंड मिले। कोई नहीं चाहता कि पुरुषार्थ के अनुपात से ही सफलता मिले। हर कोई दुख से बचना और सुख का अधिकाधिक लाभ पाना चाहता है, पर यह इच्छा कहां पूरी होती है? नियामक शक्ति द्वारा पदार्थों की तरह ही प्राणियों पर भी अंकुश रखा जाता है और जहां भी वे आलस्य-प्रमाद बरतते हैं, वहीं असफलताओं की, पिछड़ेपन की हानि उठाते हैं…

-गतांक से आगे….

कर्मफल न चाहते हुए भी मिलते हैं। कोई नहीं चाहता कि उसे अशुभ कर्मों के फलस्वरूप दंड मिले। कोई नहीं चाहता कि पुरुषार्थ के अनुपात से ही सफलता मिले। हर कोई दुख से बचना और सुख का अधिकाधिक लाभ पाना चाहता है, पर यह इच्छा कहां पूरी होती है? नियामक शक्ति द्वारा पदार्थों की तरह ही प्राणियों पर भी अंकुश रखा जाता है और जहां भी वे आलस्य-प्रमाद बरतते हैं, वहीं असफलताओं की, पिछड़ेपन की हानि उठाते हैं। व्यवस्था तोड़ते ही ठोकर खाते और दंड पाते हैं। विष खाना और पानी में कूदना अपने हाथ की बात है, पर उसके दुष्परिणामों से बच सकना कभी-कभी संयोगवश ही होता है। अपनी ही चेतना की सूक्ष्म परतों में ऐसी व्यवस्था ‘फिट’ है कि वह कुविचारों, कुकर्मों का प्रतिफल स्वसंचालित पद्धति से अपने आप ही प्रस्तुत करती रहती है। इसे झुठलाना या इससे बच निकलना भी किसी के हाथ में नहीं। देर तो होती है, पर अंधेर की तनिक भी गुंजायश नहीं है। आज के कर्मों का फल कल मिले, इसमें देरी तो हो सकती है, किंतु कुछ भी करते रहने और मनचाहे प्रतिफल पाने की छूट किसी को भी नहीं है। उत्पादन, अभिवर्धन और परिवर्तन की प्रक्रिया से सभी को असुविधा अनुभव होती है। सभी सुविधाजनक स्थिति में स्थिर रहना चाहते हैं, पर सृष्टि क्रम के आगे किसी की मर्जी नहीं चलती। इस व्यवस्था-प्रवाह को ईश्वर समझा जा सकता है। अंतःकरण में एक ऐसी शक्ति काम करती है, जो सन्मार्ग पर चलने से प्रसन्न, संतुष्ट हुई दिखाई पड़ती है और कुपंथ अपनाने पर खिन्नता, उद्विग्नता का अनुभव करती है। अंतरात्मा की इसी परत में ईश्वर झांकता हुआ देखा जा सकता है। मानव जीवन में समता, सहयोग, शिक्षा, साहस, चरित्र और सुरक्षा जैसे उच्चस्तरीय तत्त्वों के अभिवर्धन की आवश्यकता है। यह मनःस्थितियां भी हैं और परिस्थितियां भी। इन्हें आस्थाओं की गहराई में प्रवेश करने के लिए जिस दर्शन की आवश्यकता है, वह आस्तिकता का ही हो सकता है। निजी और तात्कालिक संकीर्ण स्वार्थपरता पर अंकुश लगाकर ही सामाजिक और आदर्शवादी मूल्यों का परिपोषण हो सकता है। प्रत्यक्षवाद का दबाव यह रहता है कि अपना सामयिक स्वार्थ सिद्ध किया जाए, भले ही उसके फलस्वरूप भविष्य में अपने को ही हानि उठानी पड़े अथवा सार्वजनिक अहित करना पड़े।        

-क्रमशः

(यह अंश आचार्य श्रीराम शर्मा द्वारा रचित पुस्तक ‘विवाद से परे ईश्वर का अस्तित्व’ से लिए गए हैं।)


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