विष्णु पुराण

By: Nov 23rd, 2019 12:19 am

हे मुने! राजा भरत उस मृगशवक का पालन-पोषण करने लगे, जिनसे वह उनके पोषण हुआ और नित्य प्रति वृद्धि को प्राप्त होने लगा। वह बालक कभी उनके आश्रम के निकटवर्ती प्रदेश में चरा करता और कभी दूर जंगल में चला जाता और फिर सिंहादि के डर से लौट आता…

इति राजाह भरतो हरेर्नामानि केवलम।

नान्यञ्जगाद मैत्रेय किंचत्स्वप्नांतेरकऽपि च।।

एतत्पदंतदर्थ च बिना नान्यदचिंतयत।

समित्पुष्पकुमादनं चक्रे देव क्रियाकृते।।

नान्यानि चक्रे कर्माणि निस्संग योगतापसः।

जगाम सोऽभिषुकाथमेसरा तु महानदीम।

सस्मौ तत्र तदा चदा स्नासस्यानंतरक्रियाः।।

अथाजगाम तत्तीर जलं पातुं पिपासिता।

आसन्नप्रसवा ब्रह्मंदुकैव हरिणी वनात।।

ततः समभत्तत्र पीतप्राये जल तथा।

सिंहस्य नादः समुहांसर्वप्राणिभयंकरः।।

इस प्रकार राज भरत केवल श्रीहरि के नामों का उच्चारण करते रहते थे। स्वप्न में भी वह इसी पद को जपते रहते और इसके अतिरिक्त कुछ  भी चिंतन नहीं करते हैं। वह संग रहित योगी और तपस्वी राजा प्रभु पूजन के निमित्त समिध पुरुष और कुशामात्र एकत्र करते और इसके अतिरिक्त अन्य कोई कर्म नहीं

करते थे। एक दिन की बात है उन्होंने नदी पर जाकर स्नान किया और फिर स्नान के बाद की क्रियाएं कीं। इतने ही में उस नदी के तट पर एक प्यासी हिरणी जल पीने के लिए आई, यह हिरणी आसना प्रसवा थी। वह जैसे ही जल पी चुकी, वैसे ही सब जीवों को भयभीत करने वाला भयंकर सिंहनाद सुनाई दिया।

ततः सा सहसा त्राता दाप्लुता निम्नगातटम।

अत्युच्च रोहणेनास्या नद्यं गर्भः पपात हः।।

तमह्ममानं वेगेन वीचिमालपरिप्लुतम।

जग्राह स नृपो गर्भात्पतितं मृगपोतकम।।

गर्भप्रच्युर्तिदोषण प्रोत्तुंगक्रमणेन च।

मैत्रेय सापि हरिणी पर्पाय च ममार च।।

हरिणी ता विलोक्याया विपन्ना नृपतापस।

मृगपोतं समदाय निजमाश्रमागत।।

चकारनुदिनं चासौ सृगपीतस्य वैः नृप।

पोषणं पुष्यमाणश्च स तेन वबृदे मुने।।

चचाराश्रमपर्यंते तृणानि गहतेष सः।

दूर गत्वा च शार्दूलत्रासादभ्याययौ पुनः।।

प्रातर्गत्वाति दूरं च साय सायत्यथाश्रमम।

पुनश्च भरतस्याभूश्रमंस्योटजाजिरे।।

इससे वह अत्यंत भयभीत हुई और उछलकर नदी तट पर  आ गई। बहुत ऊंचे स्थान पर उछलने के कारण उसका गर्भ नदी के जल में जा गिरा। नदी की तरंगों में बहते हुए गर्भ से गिरे मृगशावक को राजा भरत ने पकड़ लिया। हे मैत्रेय जी गर्भपात होने और बहुत ऊंची छलांग मारने के कारण वह हिरणी भी पृथ्वी पर गिरकर मर गई। उस हिरणी को मरी देखकर तपस्वी भरत उस मृग बालक को लेकर आश्रम पर आ गए। हे मुने! राजा भरत उस मृगशवक का पालन-पोषण करने लगे, जिनसे वह उनके पोषण हुआ और नित्य प्रति वृद्धि को प्राप्त होने लगा। वह बालक कभी उनके आश्रम के निकटवर्ती प्रदेश में चरा करता और कभी दूर जंगल में चला जाता और फिर सिंहादि के डर से लौट आता। प्रातःकाल होने पर यदि दूर चला जाता,तो भी सायंकाल होने पर आश्रम में लौटकर पर्णशाला के आंगन में लेट जाता।


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