असहमति पर प्रश्न करने का साहस जुटाएं

By: Dec 18th, 2019 12:28 am

मेरा भविष्‍य मेरे साथ-17

करियर काउंसिलिंग कर्नल (रिटायर्ड) मनीष धीमान

बॉर्डर पर सैनिकों के साथ फौज के बारे में जानकारी हासिल करने के साथ-साथ दुश्मन देश की ताकत और कमजोरी के बारे में भी तजुर्बा हासिल किया जाता है। इसी दौरान एक सूबेदार साहब ने अपनी नौकरी के तजुर्बे से एक बात कही कि साहब, याद रखना अगर सेना में तरक्की करना चाहते हो तो कभी भी मुंह मत खोलना, जो भी हुकम दिया जाए, बस हां जी, सर कह कर आगे बढ़ जाना।  यह करने से आप सेना में ही नहीं, बल्कि सेवानिवृत्ति के बाद सिविल लाइफ  में भी कामयाब रहोगे। उसकी बात मैंने ध्यान से सुनी और अपने जहन में बैठा ली। कुछ दिन बाद यूनिट के एक मेजर साहब से बातों-बातों में मैंने इसका जिक्र किया तो उसने कहा कि जब आपको कोई हुक्म दिया जाता है, तो पहले उस पर अमल करना, बाद में अगर आपको लगे कि यह गलत थ,ा तो प्रश्न करना। सूबेदार और मेजर साहब दोनों की बातों में काफी हद तक फौज में नौकरी करने का तरीका समाया हुआ था। न जाने क्यों, मैं उनके इस सुझाव व शिक्षा से पूरी तरह सहमत नहीं था। एक दिन सीनियर अधिकारी से चर्चा करते हुए मैंने इसके बारे में पूछा तो उन्होंने मुझे बड़े ही विस्तार से इसका जवाब दिया, जो कि जिंदगी में हर वक्त और हर मोड़ पर काम आने वाला है, उन्होंने बताया की फौज में जब भी आपको किसी तरह का हुकम मिलता है, तो उसका पालन करना आवश्यक होता है पर किसी भी बात को बिना सोचे समझे मानने से इसके परिणाम क्या होंगे इसके बारे में सोचना भी अति आवश्यक है। अगर बात देश के हित में न हो तो उस पर प्रश्न करना जायज है। उन्होंने एक और बात कही की दुनिया में अगर अलग पहचान बनाना चाहते हो तो प्रश्न करने का साहस जुटाना पड़ेगा। उन्होंने एक उदाहरण देकर समझाया कि आम आदमी सेब या आम के पेड़ के नीचे रोज जाकर खड़े हो जाते हैं और जैसे ही सेब या आम गिरता है उसे उठाकर खा लेते हैं, पर कुछ वर्ष पहले एक इनसान ने जब सेब गिरा तो प्रश्न पूछा था कि सेब नीचे गिरने के बजाय ऊपर की तरफ  क्यों नहीं गया। यह हल्के-फुल्के, घास फूस नीचे जाने के बजाय हवा के साथ क्यों उड़ जाते हैं। उनके इस प्रश्न पर उस समय हर व्यक्ति ने उनका मजाक उड़ाया और व्यर्थ के प्रश्न पूछकर समय बर्बाद करने के लिए बेवकूफ  कह कर बुलाया था। पर आज वह व्यक्ति न्यूटन के नाम से मशहूर है। उसने गुरुत्वाकर्षण बल की खोज की थी। उनकी इस बात से यह साफ  हो गया कि हर बात को बिना प्रश्र किए मान लेने से आप सामान्य तरक्की पाकर एक आम जिंदगी व्यतीत कर सकते हो, लेकिन कुछ खास हासिल करने के लिए जिसे सदियों तक आने वाली नस्लें आपको याद रखें, उसके लिए यहां सहमति न बने वहां प्रश्र करना अति आवश्यक है। जब सिद्धार्थ ने जन्म, जवानी और मृत्यु पर प्रश्न किया तो लोगों ने उसे पागल समझा, पर वह महात्मा बुद्ध बन गए। जब भीमराव ने भारत की जाति प्रथा तथा ऊंच-नीच पर प्रश्न किया तो वह बाबा साहब अंबेडकर बन गए। मोहनदास ने अंग्रेजों के शासनकाल पर प्रश्न किया तो वह महात्मा गांधी बन गए । मार्टिन ने काले-गोरे के भेदभाव पर प्रश्न किया तो मार्टिन लूथर किंग-2 बन गए। इन लोगों ने सफलता की उस पराकाष्ठा को छुआ कि आज भी लोग उन्हें याद करते हैं।  इन सब उदाहरणों से यह तो भलीभांति साफ  हो गया कि जब हम सदियों से आ रही किसी भी तरह की संस्कृति, धर्म, जाति, रंग और मान्यता पर अपने संयम और विवेक से प्रश्न करने का साहस करते हैं, तो इससे जिंदगी में आपके लिए नए आयाम स्थापित होते हैं। जब भी हम बच्चे के किसी प्रश्र पर कहते हैं कि बेटा चुप रहो, ऐसा नहीं कहते, ऐसा नहीं पूछते, सदियों से ऐसा ही होता है, आप प्रश्न मत करो, तो मुझे लगता है इससे हम अपने बच्चों को दब्बू बना रहे हैं, उनके पंख कतर कर उनकी उड़ान में बाधा बन रहे हैं। हमें अपने बच्चों को तथा आने वाली पीढ़ी को प्रश्न करने का साहस जुटाने की प्रेरणा देनी चाहिए। उनके हर प्रश्र का उत्तर देना चाहिए और अगर वह संतुष्ट न हों तो उन्हें चुप रहने के बजाय सही जवाब ढूंढने का प्रयास करने के लिए प्रेरित  करना चाहिए।  इससे हमारा समाज एवं दुनिया और भी बेहतर बनेगी तथा बच्चे कोचिंग व अन्य सहारे के बिना ही बड़ा लक्ष्य हासिल कर सकेंगे।


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