प्रभु पूजा में असल भेंट

By: Jan 25th, 2020 12:20 am

बाबा हरदेव

प्रायः कहा जाता है कि यदि प्रभु की सही अर्थों में पूजा करनी है, तो हमें ऐसी कोई वस्तु प्रभु को भेंट करनी चाहिए,जिसे हम अपना कह सकें। वास्तव में हमारे पास जो कुछ भी है वह परमात्मा का दिया हुआ है। अतः अब जो हमारा अपना है ही नहीं,तो इसे भेंट करने का भी क्या अर्थ है? अतः पूजा में प्रभु के द्वार पर हम जो कुछ भी अर्पित करते चले आ रहे हैं,भेंट करते चले आ रहे हैं, इसी प्रभु का ही दिया हुआ वापस कर रहे हैं,जिसका अधिक महत्त्व नहीं रह जाता। उदाहणतः यदि किसी वृक्ष को काट कर हम उसके पत्ते,फूल,फल,लकड़ी इत्यादि को प्रभु के चरणों में भेंट करते हैं, तो यह पत्ते,फूल,फल,लकड़ी आदि तो पहले ही इसके चरणों में चढ़े हुए थे। ऐसे ही यदि किसी नदी के जल को किसी पात्र में भर कर हम प्रभु के चरणों में अर्पित कर आते हैं, तो यह नदी तो पहले से अपना सारा जल प्रभु के चरणों में अर्पित कर ही रही थी,तो हमारा इस भेंट को अर्पित करने में क्या योगदान है? भला ऐसा करने से हमारे जीवन में क्या रूपांतरण हो गया। अब विचार करें कि इस जगत में मनुष्य के पास ऐसा क्या है, जो प्रभु का दिया हुआ नहीं है अथवा जो प्रभु का नहीं है। आमतौर पर इसे खोजने में बड़ी कठिनाई होती है। अतः ईमानदारी से खोजने पर पता चलता है कि एक बात अवश्य मनुष्य के पास ऐसी है,जो प्रभु की दी हुई नहीं है और वह है मनुष्य का कर्ताभाव अथवा अपने द्वारा करने का अहंकार। वास्तव में मनुष्य का यह कर्ताभाव का एहसास प्रभु का दिया हुआ नहीं है। जम्या जद सैं सुण तूं प्राणी दिल तेरे हंकार नहीं सी। यह अहंकार व्यक्ति द्वारा अपना अर्जित किया हुआ है कि वह व्यक्ति कुछ कर रहा है,यह भाव उसका अपना अविष्कार है और जब तक वह इस प्रकार के अहंकार से भरे सभी भावों को प्रभु के चरणों में सच्चे हृदय से न भेंट कर दे, तब तक उस व्यक्ति के जीवन में वह रूपातंरण घटित नहीं हो सकता, जिसकी विद्वान सदियों से बात करते चले आ रहे हैं। अब आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखा जाए, तो विद्वान यह कहना चाहते हैं कि व्यक्ति चाहे जो कुछ भी खाए,किसी ओर भी चले, कहीं भी बैठे अर्थात वह जो भी कर्म करें,वह इन सभी कर्मों को प्रभु के चरणों में अर्पित कर दे, अपने कर्ता होने के भाव को पूर्ण रूप से प्रभु के चरणों में अर्पित कर दे। अतः जिस क्षण पूर्ण सद्गुरु की कृपा द्वारा मनुष्य ऐसा समर्पण करने में सफल हो जाता है उसी क्षण वह असल फकीरों को उपलब्ध हो जाता है। यह ध्यान रहे कि पूर्ण सद्गुरु ही एकमात्र ऐसी अलौकिक विभूति होता है, जो मनुष्य के कर्ताभाव की अहंकार रूप भेंट को स्वीकार करके उसको इस अहंकार रूपी रोग से मुक्त कर सकता है और इसके अतिरिक्त अहंकार को मिटाने का और कोई उपाय नहीं है। अब असल फकीरी बहुत ही अद्भुत बात है,क्योंकि इसका अर्थ होता है अपने कर्ताभाव की तिलांजलि दे देना अथवा कर्ताभाव का पूर्ण त्याग कर देना। अर्थात कर्ताभाव का पूर्ण त्याग कर देना। कर्म तो करते जाना है,लेकिन ये जो करने वाला भाव है इसे त्याग देना है। यह जो भीतर कर्ताभाव खड़ा हो जाता है,उसे विसर्जित कर देना है। अतः अहंकार ही एक ऐसी वस्तु है, जो मनुष्य की अपनी बनाई हुई है और जो प्रभु पूजा में भेंट की जानी चाहिए। व्यक्ति धन भेंट में चढ़ा सकता है।


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