वैराग्य के साथ परमानंद

By: Jan 11th, 2020 12:20 am

श्रीश्री रवि शंकर

वैराग्य का आना स्वाभाविक है। उम्र बढ़ने के साथ, तुम्हारा मन स्वतः ही छोटी-छोटी बातों में नहीं अटकता है। जैसे बचपन में तुम्हें लालीपॉप से लगाव था पर वह लगाव स्कूल या कालेज आने पर स्वतः ही छूट गया। बड़े होने पर भी दोस्त तो रहते हैं पर उनके साथ उतना मोह नहीं रहता। ऐसे ही मां और बच्चों के साथ होता है। उनके प्रति मोह स्वाभाविक रूप से कम होने लगता है। यदि वैराग्य नहीं आता तो दुःख आता है। आप दुःख के कुचक्र में फंसकर सोचते हैं कि मैंने तो अपने बच्चों के लिए इतना किया, उतना किया और देखो ये लोग बदले में क्या कर रहे हैं। आपने क्या किया? केवल अपनी जिम्मेदारियों को ही पूरा किया, जो कि आपको वैसे भी करना ही था। पर उनके लिए कोई बंधन नहीं है।  वे कोई भी भावना रख सकते हैं। आप बच्चों से उनकी भावनाओं को जबरदस्ती व्यक्त नहीं करवा सकते। भावनाएं दिल में स्वतः ही उठती हैं। वह पूछ कर नहीं आती हैं। पर यदि आप ज्ञान में रहते हैं, तो नकारात्मक भावनाएं नाममात्र के लिए ही रहती हैं और सकारात्मक भावना प्रेम के रूप में रहती हैं, राग के रूप में नहीं। लोग समझते हैं कि ज्ञानी व्यक्ति में कोई भावना नहीं होती ऐसा नहीं है। सद्भाव या संतत्व की भावनाएं रहेंगी। भगवद्गीता में श्री कृष्ण ने कहा है जो मुझ में, परमात्मा में स्थितप्रज्ञ नहीं है, वह मनुष्य बुद्धिविहीन और भाव विहीन है और बिना बुद्धि और भावना के शांति और सुख पाना संभव नहीं है। राग और द्वेष को प्रेम में परिवर्तित करना ही वैराग्य है। संसार में ऐसा कोई भी सुख नहीं है जो वैराग्य से प्राप्त न हो सके। यह सच नहीं है कि वैराग्य के लिए जंगल में जाना होगा। वैराग्य का गलत अर्थ समझा गया है। वैराग्य में आनंद और प्रसन्नता है। जैसे कमल का फूल पानी में भी रहकर गीला नहीं होता ऐसे ही संसार में रहते हुए भी उससे मुक्त या निर्लिप्त रहना वैराग्य है। चिडि़या आपके सिर के ऊपर से उड़े उतना ठीक है पर उसको अपने सिर के ऊपर घोंसला नहीं बनाने देना है। संन्यास है स्वयं में स्थित होना। जो किसी भी घटना से विचलित नहीं होता वह  संन्यासी है। संन्यास मायने शत – प्रतिशत वैराग्य, शत-प्रतिशत आनंद और साथ ही कोई मांग भी नहीं। वानप्रस्थ के बाद चौथे आश्रम में स्वतः ही संन्यास का आना अच्छा है। संन्यास की स्थिति में मन बहुत तृप्त रहता है और इस प्रकार के भाव आते हैं। कोई मेरा नहीं है या कोई मुझसे अलग नहीं है या सब मेरे अपने हैं  या यह शरीर भी मेरा नहीं है। मन में पूर्ण परमानंद रहता है। कपड़े त्यागना, जंगल में जाना संन्यास नहीं है। आपका सच्चा स्वरूप परमानंद है। परंतु इस परमानंद की मौज लेने के लिए आप है से हूं में आ जाते हैं।  आप जब कहते हैं कि मैं शांति में हूं, मैं आनंद में हूं तो बाद में, मैं दुखी हूं का भी भाव आएगा। पर मैं ही तो हूं वैराग्य है। आप कहीं भी रहते हुए वैराग्य में रह सकते हैं। वैराग्य में प्रत्येक परिस्थिति का स्वागत होता है। केंद्रित होने से ऊर्जा या चमक आती है। जबकि परमानंद का सुख भोगने से जड़ता आती है। वैराग्य के साथ परमानंद तो रहता ही है।  जब बहुत कुछ है की भावना होती है, तो स्वतः ही वैराग्य आ जाता है और जहां वैराग्य है वहां कुछ मांगने से पहले ही बहुत कुछ मिल  जाता है।


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