सृष्टि का सृजन

By: Jan 4th, 2020 12:20 am

बाबा हरदेव

जब विद्वान कहते हैं कि परमात्मा ने सारी सृष्टि का सृजन किया है, तो इसका एक बड़ा अर्थ है क्योंकि सृजन करने का अर्थ है कि परमात्मा को जगत का सृजन करने में कुछ मिलने अथवा न मिलने की इच्छा नहीं होती। परमात्मा को इससे कुछ उपलब्ध हो, लाभ हो, ऐसा कुछ भी नहीं है क्योंकि परमात्मा ने संसार को मैं भाव और उपयोगिता भाव के बिना रचा है। परमात्मा के लिए सृजन करना बिलकुल सहज है, मैं से रिक्त और शून्य है। मानो यह सारी सृष्टि परमात्मा के लिए स्वेच्छा निरूप और अर्विभाव है। संपूर्ण अवतार वाणी का भी कथन है जो कुझ दिसदै नजरी आउंदै एसे दा है सगल पसार, दीन दुखी भगतां दा रक्षक एहो सृष्टि सिरजनहार। (संपूर्ण अवतार वाणी) मैं बनाऊं, मैं रचूं ऐसा कोई भाव सृष्टि के सृजन में नहीं हो सकता क्योंकि मैं केवल वहीं उत्पन्न होता हैं, जहां तू की संभावना हो। परंतु परमात्मा के लिए कोई तू है ही नहीं। यह तो अकेला है। थापया न जाए कीता न होइ आपे आप निरंजन सोई। इसलिए मैं का भाव परमात्मा में नहीं हो सकता। तेरा इक इशारा पा के बन गए आलम सारे नें। तेरा इक इशारा पा के फुट्टे जल दे धारे ने। (संपूर्ण अवतार वाणी) अब परमात्मा इस बड़े सृजन को फैलाकर और निरंतर इस बड़ी धारा को चला कर भी यह कह रहा है कि मानो परमात्मा जगत को यज्ञ रूपी कर्म में निर्मित कर रहा है। अब विचार करें कि मनुष्य को सृष्टा दिखाई नहीं देता,हमें मात्र सृष्टि ही दृष्टिगोचर होती है अतः अनेकों लोग यह पूछते रहते हैं कि परमात्मा कहां है? वास्तविकता यह है कि जिसका मैं नहीं है वह दिखाई कहां दे सकता है। मानो कर्ता बिलकुल अदृश्य है और इसका कर्म दृश्यमान हो रहा है। गीता में श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि हे अर्जुन कर्म ऐसे करो कि कर्म ही दिखाई पड़े कर्ता बिलकुल दिखाई न दे। वास्तव में जिसके पास अहंकार नहीं है,उसके पास मैं कैसे हो सकता है और जब इसके मौजूद होने का कोई रास्ता ही नहीं है। परमात्मा की गैर मौजूदगी भी इसकी मौजूदगी है। यही इसकी हाजिरी है कि यह गैर हाजर नजर आए। इस प्रकार जिस मनुष्य में पूर्ण सतगुरु की कृपा द्वारा मैं के अहंकार का कोई भाव अथवा उपयोगिता का कोई भाव नहीं रह जाता है उस क्षण वह मनुष्य अपने आप को परमात्मा का हिस्सा समझने लगता है। उसी क्षण वह मुक्त हो जाता है। क्योंकि मनुष्य वास्तव में प्रभु मिलन की संभावना को लेकर इस संसार में आया है। अब ध्यान देने वाली बात यह है कि मनुष्य इस छोटी सी मैं को कर्ता भाव को बीच में न आने दे, क्योकि इन भावों के कारण सारा विघ्न,उत्पात खड़ा हो जाता है और ऐसे भावों के आसपास ही कर्म बंधन बन जाता है जो फिर हमारे आवागमन का कारण बनता चला जाता है और मनुष्य जन्मों-जन्मों के चक्कर से बाहर नहीं निकल पा रहा है। काश! हम सृजनहार की सृजनता से कुछ सीख पाएं ताकि हमारा जीवन सृजनात्मक हो जाए।


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