आसान नहीं है बाल साहित्य लिखना

By: Feb 16th, 2020 12:06 am

सुदर्शन वशिष्ठ
मो.-9418085595

बाल साहित्य लेखन परंपरा में हिमाचल का योगदान-2
अतिथि संपादक : पवन चौहान

बाल साहित्य की लेखन परंपरा में हिमाचल का योगदान क्या है, इसी प्रश्न का जवाब टटोलने की कोशिश हम प्रतिबिंब की इस नई सीरीज में करेंगे। हिमाचली बाल साहित्य का इतिहास उसकी समीक्षा के साथ पेश करने की कोशिश हमने की है। पेश है इस विषय पर सीरीज की दूसरी किस्त…

विमर्श के बिंदु
* हिमाचली लेखकों का बाल साहित्य में रुझान और योगदान
* स्कूली पाठ्यक्रम में बाल साहित्य
* बाल चरित्र निर्माण में लेखन की अवधारणा
* इंटरनेट-मोबाइल युग में बाल साहित्य
* वीडियो गेम्स या मां की व्यस्तता में कहां गुम हो गई लोरी ?
* प्रकाशन की दिक्कतों तथा मीडिया संदर्भों से जूझता बाल साहित्य
* मूल्यपरक शिक्षा और बाल साहित्य
* बाल साहित्य और बाल साहित्यकार की अनदेखी, जिम्मेदार कौन?
* हिमाचल में बाल पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका
* हिमाचली बाल साहित्य में लोक चेतना
* वर्तमान संदर्भ में बच्चों तक बाल साहित्य की पहुंच

बाल साहित्य लिखना बहुत कठिन है। जैसे बहुत बार बहुत आसान लिखना बहुत कठिन हो जाता है, वैसा ही बाल साहित्य है। लोग सोचते हैं, अरे! बच्चों के लिए क्या लिखना, जो मन में आए लिख दो। मगर यह कहने भर की बात है। वास्तव में सरल लिखना बहुत कठिन है। हिमाचल तो क्या, अब देश में भी बाल साहित्यकारों की संख्या बहुत कम है। हालांकि हर पत्र-पत्रिका में बाल साहित्य के लिए एक कॉलम रखा जाता है। चंदा मामा जैसी बाल साहित्य की प्रसिद्ध पत्रिकाएं बंद हो गईं। अब उनका स्थान मोटू-पतलू और छोटा भीम जैसे कॉमिकों ने ले लिया है। तथापि प्रकाश मनु जैसे बाल साहित्यकार अपनी साधना में लगे हैं। किसी भी विधा में लेखन उसकी लोकप्रियता के साथ-साथ खरीद पर भी बहुत निर्भर करता है।  एक बार केंद्र सरकार के निर्देशों पर बहुत से राज्यों में बाल साहित्य के खरीद की सरकारी योजनाएं बनीं। थोक खरीद होने से एकाएक बाल साहित्य की मांग बढ़ गई। प्रकाशक लोग जैसी-तैसी बाल पुस्तकों की मांग लेखकों से करने लगे। रातोंरात पुरानी पुस्तकों के रीप्रिंट छाप डाले। खरीद बंद होने पर लेखक और प्रकाशकों का उत्साह जाता रहा। हिंदी में तो नहीं, किंतु आज भी पुस्तक मेलों में अंग्रेजी में लिखी बढिय़ा प्रिंटिंग में सचित्र बाल पुस्तकों की बहुत मांग रहती है। हिमाचल की बात करें तो सर्वप्रथम बाल साहित्य के पितामह संतराम वत्स्य (1923-1988) का उल्लेख करना जरूरी हो जाता है। संतराम वत्स्य ने बाल साहित्य में सौ से अधिक पुस्तकें लिख कर एक मानक स्थापित किया जो हिमाचल ही नहीं, पूरे देश में प्रसिद्ध हुआ। पालमपुर के पास एक गांव में जन्मे वत्स्य जी बाद में शाहदरा, दिल्ली में रहे जहां कई प्रकाशन संस्थानों में उन्होंने काम किया। किताबघर प्रकाशन, हिमाचल पुस्तक भंडार के स्वामी जगतराम आर्य के संपर्क में आने से उनकी कई बाल पुस्तकें यहां से प्रकाशित हुईं।
रामायण, महाभारत, सत्पुरुषों की जीवनियां आदि लिख कर इन्होंने बाल साहित्य को समृद्ध किया। ये एक ऐसे लेखक थे जिन्होंने बाल साहित्य लिख कर केवल लेखनी के बल पर जीवन निर्वाह किया। हिमाचली बाल साहित्य में उपन्यास, नाटक, कविता, कहानी के अलावा लगभग सभी विषयों पर लिखा गया है। आदर्श कथाएं, नीति कथाएं, नैतिक कथाएं, प्रेरक कथाएं, पौराणिक व ऐतिहासिक कथाएं, लोक कथाएं, धार्मिक कथाएं, महापुरुष व आदर्श पुरुषों की कहानियां, पशु-पक्षियों की कहानियां जैसे विषयों को लेकर बहुत लिखा गया है। दिल्ली में ही रहने वाले हिमाचल के एक और साहित्यकार मस्तराम कपूर ने भी बाल साहित्य में लेखनी चलाई। मूलत: पालमपुर के सकड़ी गांव के वासी कपूर ने ‘नीरू और हीरू’, ‘सपेरे की लडक़ी’, ‘भूतनाथ’, ‘नाक का डॉक्टर’ आदि बाल उपन्यास लिखे।  इनके बाद बाल साहित्य और बाल उपन्यासकार के रूप में महत्त्वपूर्ण नाम डा. सुशील कुमार फुल्ल का आता है जिन्होंने पांच बाल उपन्यास लिखे। ‘टकराती लहरें’, ‘पर्वतों के ऊपर’, ‘ललकार’, ‘लाल मिट्टी की करामात’ आदि उपन्यासों से इन्होंने बाल साहित्य को समृद्ध किया। मस्तराम कपूर तथा डा. फुल्ल ने बाल कहानियां भी लिखीं। सैन्नी अशेष की अनेक बाल कहानियां देश की जानी-मानी पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। हरिकृष्ण मुरारी, हेमकांत, किशोरी लाल वैद्य, संतोष शैलजा आदि ने भी बाल कथाएं लिखीं। हरिकृष्ण मुरारी का एक संकलन भी ‘मीठी यादें’ नाम से आया।  बाल कविता में यशवीर धर्माणी तथा डा. प्रत्यूष गुलेरी के नाम प्रमुख हैं जिनकी बाल कविताएं अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। डा. प्रत्यूष गुलेरी कृत ‘बालगीत’ नेशनल बुक ट्रस्ट से तथा ‘मेरी 57 बाल कविताएं’ आत्माराम एंड संज से प्रकाशित हुई हैं। बाल कहानियां और एक संपादित हिंदी बाल कविताएं प्रकाशनाधीन हैं। बाल कविता में एक और नाम नगरी, पालमपुर से कृष्णा अवस्थी का आता है। इनकी पुस्तक ‘झिलमिल तारे’ में सैंतीस कविताएं संकलित हैं। मोतीलाल घई, गिरिधर योगेश्वर और संसारचंद प्रभाकर ने भी बाल साहित्य व कविताएं लिखी हैं। इधर कई साहित्यकारों ने बाल साहित्य के नाम पर बालोपयोगी लोक-कथाओं को भी शामिल किया है। सुदर्शन वशिष्ठ ने बाल कथाओं के अलावा बाल लोक कथाओं पर भी काम किया है। इनकी ‘कथा और कथा’ भावना प्रकाशन से 1995 में प्रकाशित हुई। इसके बाद ‘हिमाचल प्रदेश की लोक कथाएं’ सतलुज प्रकाशन पंचकूला से 1998 में छपी जिसमें चित्र भी दिए गए। एक सचित्र पुस्तिका ‘बालक की सीख’ एनबीटी से प्रकाशित हुई। इनके अलावा बाल भारती, पराग, नंदन आदि में इनकी बाल कथाएं छपती रहीं। अपने मूल विषय से हट कर बहुत से रचनाकारों ने कभी कभार बाल साहित्य में हाथ आजमाया है। सर्वश्री गौतम व्यथित, शम्मी शर्मा, खुशीराम गौतम, कर्मचंद श्रमिक, कमल प्यासा, केशवचंद्र, श्रीनिवास जोशी, रत्नचंद रत्नेश, राममूर्ति वासुदेव प्रशांत, गुरमीत बेदी, अशोक सरीन, रत्नचंद निर्झर व त्रिलोक मेहरा ने भी समय-समय पर बच्चों के लिए कुछ न कुछ लिखा है। वासुदेव प्रशांत की गत वर्ष ‘रोचक कथाएं’ पुस्तक छपी है। पवन चौहान साहित्य की अन्य विधाओं में लिखने के साथ-साथ बाल साहित्य में भी एक उभरता हुआ नाम है जिनकी रचनाएं कई पत्र-पत्रिकाओं में छपती रहती हैं। इनकी बाल पुस्तक ‘भोलू भालू सुधर गया’ पर्याप्त चर्चित रही है। हाल ही में गंगाराम राजी की एक बाल पुस्तक ‘चिडिय़ा आ दाना खा’ प्रकाशित हुई है जिसे चित्रों के माध्यम से आकर्षक बनाया गया है।

 


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