क्या-क्या खरीदोगे?

By: Feb 20th, 2020 12:05 am

सुरेश सेठ

sethsuresh25U@gmail.com

आप यहां क्या बेचने आए हैं, साहब। कंजी आंखों वाले चालाक आदमी ने हमें पूछा। बहुत दिन पहले वह हमारे साथ इस फुटपाथ पर सोने की जगह पाने के लिए झगड़ा किया करता था। आज वे फुटपाथ नहीं रहे। उसके साथ एक घासीला मैदान हुआ करता था, वहां अब उसका आलीशान प्रासाद खड़ा हो गया है। इसके बाहर दो घोड़ों की टमटम नहीं, दस घोड़ों की ताकत वाली बड़ी आयातित गाड़ी खड़ी है। बड़ा तिलिस्मी ऐय्यार निकला हमारा यह यार। अपनी बातों का लखलखा सुंघा कर किसी को भी बेहोश कर दे। पुरानी बातें हैं। तब देश नया-नया आजाद हुआ था। ईस्ट इंडिया बनाकर जो अंग्रेज हमारे साथ तिजारत करने आए थे, उनको हम अलविदा कह चुके थे। हम सोचते थे, अब हमारा राज आएगा। सड़क छाप लोगों का राज। तब हमें एक जलता शेंर बार-बार दोराना अच्छा लगता था, जिसमें वक्र का मसीहा पैगाम देता है कि ‘ऐ खाक नशीनो उठ बैठो, वह वक्त मुकाबिल आ पहुंचा, जब तख्त गिराए जाएंगे, जब ताज उछाले जाएंगे। बेशक यह इंतजार हम सब लोग कर रहे थे। राजमहलों के धराशायी होने का, तख्त गिरने का, ताज उछलने का, लेकिन यह इंतजार 72 वर्ष की लंबी सड़क पर निकल गया और अब भी जारी है। इस पैगाम के स्वर पर मंत्रविद्ध होकर हाथों में वोट की पर्ची लिए निकले बहुत से लोग, जिन्हें ताज गिरा कर वहां अपनी मैली कुचैली टोपियां रखनी थीं, लेकिन टोपी तो टोपी होती है साब, वह भला क्या खा कर ताज बनती। बल्कि इसी फिराक में इस अंतहीन सड़क पर चलते हुए करोड़ों लोगों के बिवाइयां फटे पांव लहूलुहान हो गए। किसी ने उन पर मरहम नहीं लगाया। इन्होंने जो टोपियां पहन रखी थीं, वह तार-तार हो गईं। राजमहल न टूटे न गिरे। तख्त गिरे नहीं, उन्होंने अपना चोला बदल लिया। वक्त गुजरता गया। नए सपनों की कलई वाली पांच साला कारगुजारियां योजनाएं कहलाईं और उनके द्वारा छेड़ी गई क्रांतियां कामगारों को खुदकुशी का संदेश देने लगी। आंकड़ों के बाजीगरों ने इन धूलिधूसरित लोगों को बताया कि आपका देश बहुत तरक्की कर गया है, क्योंकि दुनिया के मुकाबले यहां सबसे तेजी के साथ अरबपति बढ़ते हैं, लेकिन उससे कहीं तेजी के साथ यह देश भुखमरी के सूचकांक की पायदाने चढ़ रहा है। इसकी वजह से करोड़ों लोगों की चीखों पुकार की परवाह किसी ने न की। उनकी परवाह कौन करता जबकि भाग्य विधाताओं को देश के महानगरों में उभरती हुई ऊंची इमारतों की मंजिलें गिनने से ही फुर्सत न थी। हर पांच साल में लोगों की टोपियां जीर्णशीर्ण हो जातीं, तो इनमें नई टोपियां बांट दी जातीं। ये टोपियां ढपोरशंख की वारिस थी, जो सपने में उन्हें मखमली गलीचे और रूमाली रोटियां बांटती थीं। इन टोपियों की तिजारत करने वाले इन राजमहलों में घुस कर आराम फरमाने लगे। यहां पीढ़ी दर पीढ़ी उनके पूर्वज कभी राजदंड घुमाते रहे थे। कंजी आंखों वाले वे लोग जो इसके साथ सड़कों पर थे, हमें टूटते सपनों की भीड़ मेधकिया कर आगे बढ़ गए और इन राजमहलों की चौकसी करने लगे। इन्हें हम सत्ता के दलाल कहने की होशमंदी कभी न कर सके, क्योंकि वे सत्ता के द्वार की ओर जाने वाला ऐसा पुल था कि जिसकी सीमा से बाहर खड़े होकर हमें रोजी रोजगार की गुहार लगानी पड़ती। पौनी सदी बीत चली यह गुहार किसी ने नहीं सुनीं। राजमहल के नए मालिक अपने भाषणों, वचनों और जुमलों की सीढि़यां फलांग कर इन महलों के पक्के कब्जाधारी बन गए। कभी-कभी वे अपनी केंचुल बदलने की तरह अपना चेहरा बदल लेते, लेकिन इनके श्रीवचनों की तासीर एक सी रहती। पुल से परे खड़ी भीड़ की गरीबी बढ़ गई। उनकी नींद भी। पहले उन्हें वोट की पर्ची मिलती थी, अब इसके लिए बनी मशीन का बटन दबाना था। पुल पर खड़े कंजी आंखों वाले लोग इस भीड़ को मशीनों के करीब जाने का आग्रह करते। उन्हें समझाया जाता मशीन का बटन दबाओ, क्रांति हो जाएगी। नोटा न दबाना नहीं तो क्रांति रूठ जाएगी, लेकिन यह क्रांति ऊंची इमारतों की मुंडेरों पर हो रही थी, उनकी बदहाल सड़कों पर नहीं, यह बात उन्हें किसी ने नहीं बताई।


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