जरा बच के भैया

By: Feb 6th, 2020 12:05 am

सुरेश सेठ

sethsuresh25U@gmail.com

जिसे अपेक्षा न हो, और न ही उम्मीद, अगर उसे ही सत्ता की कुर्सी मिल जाए, वह भी एक-दो वर्ष नहीं, पूरी दो पीढ़ी युगों तक। एक पीढ़ी पांच वर्ष की होती है बड़े मियां। तो उसे आप दुर्घटनाग्रस्त प्रधानमंत्री कहेंगे? या अचानक बना एक युग मसीहा। उसे चाहे आप एक्सीडेंटल प्राइममिनिस्टर कह दें। उसकी फिल्म बना लें। इसे मल्टीप्लैक्स से लेकर सोशल मीडिया तक रिलीज करके चुनाव जीतने का कार्यक्रम बना लें, तो समझिए कि चुनाव जीतने के कार्यक्रमों का केवल आधुनिकीकरण हो गया। बात निकली और दूर तक चली गई। गुलाम अली गाते हैं, गाते रहेंगे, लेकिन यार लोग केवल शीर्षक ले उड़े। कुर्सी तो अंधों का हाथी है, भैया। जिसके हाथ जो लगा वही उसका भाग्य बन गया। एक नेता थे, सेवानिवृत्त होकर अपने गांव जा रहे थे। भाग्य ने आवाज दी, वापस आकर सत्ता सुख भोगने लगे, देश को एक दो घपले-घोटाले उपहार में दे गए। उनके चेले चांटों ने सूट केसों में बंद करके उपहार, संस्कृति चला दी। उनकी शासन की खूबी ‘अनिर्णय’ थी। हर समस्या को चालू खाते में डाल दो। वक्त अपने आप समाधान दे देगा। सब को जंच गया तो यह उनका श्रेय हो गया, नहीं जंचा तो उनका प्रेम बन जाएगा कि तभी तो इसकी चिंता टाल रहे थे। इसे क्या आप दुर्घटनाग्रस्त प्रशासन न कहोगे? हमें लगता है व्यक्तित्व दुर्घटनाग्रस्त नहीं होता। देश के करोड़ों लोगों का समय परिवर्तन चाहता है और फिर वही दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है। अब देखो न जिन नेता जी को दुर्घटनावश नेता कह रहे हो, क्या उनका सबसे बड़ा गुण मौन रहना नहीं था। सही है व्यर्थ के कौआरुदन से मौन रहना भला। कोई इसे सहमति का लक्षण मान ले और कोई इसे तटस्थता का पर्याय। कोई चाणक्य नीति कह दे कि मूर्खो के हुड़दंग में चुप रहना भला। लीजिए अब जो चाहे कह लीजिए, आपने तो अपना समय भी भली प्रकार काट लिया। समय कट गया तो आप इस युग के भीष्म कहलाए। धृतराष्ट्र के दरबार में द्रौपदी का चीर-हरण हो गया। वह मौन रहे, अपनी भीष्म प्रतिज्ञा नहीं तोड़ी। चाहे उनके मौन ने महाभारत करवा दिया। जी हां, हर समय का अपना-अपना महाभारत होता है और उसके एक-एक मौन या मुखर भीष्म पितामह। इनकी चरणवंदना कीजिए। इन सबके अपने-अपने सत्ता संग्राम हैं और एक-दूसरे को दुर्घटनावश या दुर्घटनाग्रस्त मानने की विवशता, लेकिन वे अगर दुर्घटनावश सत्ता का सरताज बन गए तो उनके जुमलों से, नारों से, संभाषणों से दुर्घटनाग्रस्त तो आम आदमी ही होता रहा। इसके साथ एक घटना समाजवाद की परिकल्पना की घटती है, परिणति अमीर और गरीब की बढ़ती खाई में होती है। आज चोर दरवाजे मुख्य द्वार बनते चले गए। अट्टालिकाओं और प्रासादों वालों की शाही सवारी निकल गई और मोड़ पर रुके-रुके करोड़ों लोग इस शाही कारवां के निकल जाने पर उसका गुब्बार देखते रहे। देखते क्या, उससे दुर्घटनाग्रस्त होते रहे, तब तक जब तक उन्होंने पाया कि उनकी उम्र का कोई चढ़ाव आया ही नहीं। वह भला उतार के सिवाय क्या पाते। उधर जो सत्ता के पहाड़ पर बैठा था, उसका भला कैसे उतार होता? उसका हाथी मरेगा भी तो सवा लाख का होगा। सत्ता की कुर्सी छीनी, तो विपक्षी नेता बन जाएंगे। अब उनके बेटे-पोते, दल-बदल सत्ता सुख भोग रहे हैं। यहां तो दुर्घटनाग्रस्त कोई न हुआ। उनके यहां जो घटा वह सौभाग्य की सूचना ही लाया। दुर्घटनाग्रस्त तो वह हुआ जो भयावह के कारण चौराहे पर ठिठुर कर मर गया, उसके पास न रोटी थी, न कपड़ा और न मकान। इसके नारे जो उसके गिर्द चक्कर लगाते रहे। वे आज दुर्घटनाग्रस्त हो गए। बंधु, दुर्घटना उसे नहीं कहते जो किसी रईस के मदमस्त छोकरे के अपनी आयातित गाड़ी भगाने से किसी फुटपाथी के दम तोड़ देने से हुई। दुर्घटना तो तब हो जाती अगर वह रईसजादा रंगे हाथ पकड़ा जाता, लावारिस मौत के आंखों देखे गवाह अपने बयान नहीं बदलते। मुकदमें की सुनवाई एक साथ हो जाती। तारीख पर तारीख के भंवर जाल में न उलझती। रईसजादा अपने कृत्य का दंड भुगतता हुआ नजर आता, लेकिन ऐसी दुर्घटनाएं सड़क छाप लोगों की जिंदगी में घटती नहीं। यहां तो ऐसी मौतों के गवाह बयान बदलते हैं।


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