मां भुवनेश्वरी सिद्धपीठ

By: Feb 8th, 2020 12:22 am

सांगुड़ा पीठ न केवल धार्मिक स्थल के रूप में, बल्कि समाज कल्याण का कंेद्र बनकर उभरा है। 18वीं सदी का यह आस्था स्थल पौड़ी गढ़वाल के सतपुली, बांगाट-व्यासघाट पर तिल्या के समीप नारद गंगा के तट पर ऊंची चट्टान पर विद्यमान है। यह बांगाट से दो किलोमीटर दूर स्थित है…

देवभूमि उत्तराखंड में सांगुड़ा की मनोहारी सुरम्य उपत्यका में स्थित मां भुवनेश्वरी पीठ सदियों से भक्तों की आस्था का केंद्र रहा है। जैसे कि किसी भी धर्मस्थल की स्थापना की पृष्ठभूमि में अनेक जनश्रुतियां, दंतकथा या पौराणिक गाथाएं होती हैं वैसे ही मणिद्वीप स्थित सिद्धपीठ के साथ भी अनेक दंतकथाएं जुड़ी हैं। यह ठीक है कि इतिहास की कठोर सीमाओं के अंतर्गत हर बात की तार्किक परिणति संभव नहीं है, लेकिन आस्था के आगे तमाम तर्क व्यर्थ हो जाते हैं।  सांगुड़ा पीठ न केवल धार्मिक स्थल के रूप में, बल्कि समाज कल्याण का केंद्र बनकर उभरा है। 18वीं सदी का यह आस्था स्थल पौड़ी गढ़वाल के सतपुली, बांगाट-व्यासघाट पर तिल्या के समीप नारद गंगा के तट पर ऊंची चट्टान पर विद्यमान है। यह बांगाट से दो किलोमीटर दूर स्थित है। मंदिर का परिवेश अत्यंत रमणीक एवं मनोहारी है। मंदिर के बारे में जनश्रुति है कि इस स्थान को मां भगवती ने खुद चुना है। इस मंदिर के बारे में मान्यता है कि यहां श्रद्धानुसार मंदिर की 11, 21 या 108 परिक्रमा करके बेलपत्ती चढ़ाने से मनोकामना पूरी होती है। कहते हैं कि इंद्रप्रस्थ से असुरों का नाश करने के उपरांत हिमालय की ओर उन्मुख मां भुवनेश्वरी अपने गंतव्य स्थल तक पहुंचने के क्रम में युद्धमल सिंह नेगी के नमक के सोल्टे में मातृलिंग के रूप में विराजमान हुईं। बांस के बने और भारी सामान के लिए कंधे पर रखकर ले जाए जाने वाले सोल्टे लेकर जब युद्धमल अपने सहयोगियों को लेकर नयार नदी पार कर सांगुड़ा पहुंचे, मणिद्वीप की मनोहारी सुरम्य उपत्यका को देखकर मां भगवती ने इसे अपने विश्राम स्थल के लिए चुना। युद्धमल और उनके साथी जब विश्राम करने के बाद नमक के सोल्टे के साथ आगे बढ़े, तो उनके सोल्टे इतने भारी हो गए कि वे आगे न चल सके। उन्होंने आसपास के गांव के लोगों को नमक बांट दिया। ग्रामीण नमक की इतनी मात्रा देखकर हैरत में थे और नमक बांटकर सोल्टा झाड़कर मातृलिंग को काला पत्थर समझकर वहां स्थित एक बेल के पेड़ के नीचे फेंक दिया। जनश्रुति है कि भुवनेश्वरी ने म्वाथा नेगी भवान सिंह को आकाशवाणी के जरिए बताया कि सांगुड़ा में मेरे मातृलिंग को स्थापित करो। इसी तरह ग्राम नैथाणा में एक बुजुर्ग को स्वप्न में मां भुवनेश्वरी ने बताया कि मैं तुम्हारी इष्ट देवी हूं। सांगुड़ा में मेरा मनभावक मंदिर बनाओ। कालांतर में यहां मातृलिंग की स्थापना करके मंदिर निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई। फिर इंजीनियर मथुरा प्रसाद ने यहां एक मंदिर का निर्माण कराया जो कालांतर में भूकंप से धराशायी हुआ। इस दौरान स्थानीय जनता के प्रयास से एक छोटा सा मंदिर पुनः बनाया गया, लेकिन इस भुवनेश्वरी मंदिर के जीर्णोद्धार की असली शुरुआत वर्ष 1991 में जनरत्न जी के सान्निध्य में हुई एक अनौपचारिक बैठक में हुई, जिसमें श्री लक्ष्मीकांत ने जीर्णोद्धार का संकल्प लिया। फिर आदिशक्ति मां भुवनेश्वरी मंदिर विकास मिशन की स्थापना हुई जिसका दायित्व ग्यारह सदस्यीय टीम को दिया गया। इस मिशन ने देश-विदेश में बैठे हजारों श्रद्धालुओं को एक सूत्र में बांधकर चैत्र व  शारदीय नवरात्र पर यहां एकत्र होने का अवसर दिया। आज यहां मनोहारी व भव्य मंदिर परिसर व बड़ी धर्मशाला का निर्माण कराया गया है।

 


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