विष्णु पुराण

By: Feb 22nd, 2020 12:14 am

22ते मानसं स्वस्थमाहारेण कृतं द्विज।।

क्व निवासो भवासो भवान्विप्र क्व च गंतु समुद्यतः।

आगम्यते च मवता यतस्तच्च द्विजोव्यताम।।

क्षुतस्य तस्य भुवतेऽत्ने दृप्तिब्राह्मण जायते।

न में क्षुन्नाभवत्तुप्ति कस्मांता परिपृच्छसि।।

वह्निना पार्थिवे धाती क्षपिते क्षुत्समृद्भवः।

भवत्यम्भसि च क्षीणे नृणां मृडपि जायते।।

क्षुत्तृष्णे दहधर्माख्ये न ममैते यतो द्विजः।

ततःक्षुत्संभावाक्तृरिस्त्येव मे सदा।।

हे भगवन! आप कहां कि निवासी हैं कहां जा रहे हैं और कहां से आ रहे हैं। ऋभु ने कहा हे विप्र भूखे को ही तृप्ति होती है परंतु मुझे तो कभी भूख ही नहीं लगती,फिर तृप्ति विषयक प्रश्न ही कैसा। जब जठराग्नि ठोस साधुओं को क्षीण कर देती है, तब भूख लगती है और जब शुष्क हो जाता है,तब प्यास जान पड़ती है। हे द्विज यह भूख और प्यास दोनों ही देह के धर्म है,मेरे नहीं। इसलिए मैं कभी भूखा न होकर सदा ही तृप्त रहता हूं।

मनसःस्वस्थता तुष्टिश्चित्तधर्माविमौ दिवज।

चेतसो यस्य तत्पुच्छ पुमानेभिर्नपुज्यते।।

क्वनिवासस्तवेन्युक्त क्व गंतासि च यत्वता।

कुतश्चागम्यते तत्र त्रितयेऽपि निबोधः मे।।

पुमान्सर्वगतो व्यापी आकाशवदयं यतः।

कुत्रःकुत्र क्व तंतसीत्येत दप्यथवत्कर्यम।।

सेऽहं गंता न चागंता नैकदेशनिकेतनः।

त्वं चान्ये च न च त्वं च नान्ये नैवाहमप्यहम।।

मृष्ट न मृष्टमष्येषा जिज्ञासा मे कृता तव।

कि वक्ष्यसीति तत्रापि श्रुयतां दिवजसत्तमः।।

किमस्वादवथ वा मृष्टं भुंजतीऽस्ति दिवजोत्तम।

मुष्टमेव यदामृष्ठ तदेवीदवेगकारकम।।

आदिमध्यावसानेषु किमन्न रुचिकारकम।

स्वस्थता और संतुष्टि यह भी मन के धर्म है,आत्मा से इनका कुछ भी संबंध नहीं है। इसलिए हे विप्र जिनके यह धर्म हैं,उसीसे इनके विषय में प्रश्न करो।  तुमने मेरे विषय में यह पूछा कि कहां निवास है, कहां रहा हूं और कहां से आया हूं, सो इसके विष्य में मेरे विचार सुनो।

आत्मा  आकाश के समान व्यापक होने से सर्वगत हैं इसलिए कहां रहते, कहां से आए, कहां जाते हो वे प्रश्न भी निरर्थक ही हैं। क्योंकि मैं तो न कहीं जाता हूं और न कहीं रहने का मेरा स्थान है। यथार्थ में तो न ‘तू तू’ है और न ‘मैं मैं’ और न अन्न मांगा था, उससे भी तुम्हारे विचार सुनना चाहता था। हे द्विजोत्तम खाने दाने के लिए सुस्वादु और अस्वादु का विचार ही कैसा? क्योंकि जब कालांतर में स्वादिष्ट पदार्थ ही स्वाद रहित हो जाता है, तो वही उद्वेग उत्पन्न करने वाला हो जाता है। इसी प्रकार जो अरुचिकर पदार्थ हैं वह कभी रुचिकर प्रतीत होने लगते हैं और रुचिकर पदार्थ कभी उद्विगन करने वाले हो जाते हैं। बताओ ऐसा पदार्थ कौन सा है जो आदि, सध्य और तीनों समय ही रुचिकर प्रतीत हो?


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