वीडियो गेम और मां की व्यस्तता के बीच लुप्त होती लोरियां

By: Feb 16th, 2020 12:05 am

राजीव त्रिगर्ती मो.-9418193024

लोरियों का अस्तित्व समाप्त होने को है, इस तरह का विचार मन में आते ही सिहरन पैदा कर देता है। यह ‘लोरी’ शब्द के साथ शैशवावस्था से ही आंतरिक संबंध का ही परिणाम है। लोरियों के इतिहास या उनकी प्राचीनता के संदर्भ में चाहे जितने भी शोध, मत-मतांतर हों, पर इतना तो तय है कि मां और शिशु के बीच जन्य-जननी संबंध होने के कारण इनका प्रारंभ मानव का भाषा के साथ संबंध स्थापित होने से भी पूर्व ही हो गया होगा। उसका रूप क्या रहा होगा, यह तो तय नहीं किया जा सकता, परंतु इसे किसी भी रूप में अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता। इस विश्व का कोई भी हिस्सा, कोई भी समाज इससे अछूता रहा हो, इसकी तो कल्पना ही निराधार है। लोरियों का सीधा संबंध मां और शिशु के अंतर्मन से है। भू्रण में प्राणों का संचार होने के उपरांत भी कई सप्ताह तक शिशु गर्भस्थ होता है।  मां के वात्सल्य की अनुभूति इसे गर्भ में ही हो जाती है। जन्म के उपरांत मां का स्नेहिल स्पर्श और मधुर लोरी के साथ सोना उसके प्रारंभिक जीवन का आनंदपूर्ण और महत्त्वपूर्ण हिस्सा होते हैं। नींद से व्याकुल हो रो रहे या न सोने की जिद पर अड़े हुए शिशु को सुलाने के लिए लोरी सच में सर्वोत्कृष्ष्ट उपाय है। लोरियों का संबंध दादी-नानी से भी उतना ही था जितना मां के साथ। समय ने करवट ली है। लोरियां भले ही जड़ से उखड़ी नहीं हैं, परंतु उनका लहराता हरा-भरा पेड़ अब अचाही आंधियों के साथ झड़ता चला जा रहा है।
हिंदी में एक लोरी है- ‘चंदा मामा दूर के, दही पकौड़े बूर के……’ परंतु यह लोरी भाषा के सारे प्रतिमान लांघ गई थी। इस तरह ही हमारे देश की हर बोली, हर भाषा में कुछ लोरियां अपने लय और बोलों के चलते मां की ममता का बच्चों की नींद से अपना घनिष्ठ संबंध जोड़े हुए थीं। आज लोरियां अपना अस्तित्व खो रही हैं। वीडियो गेम और मां की व्यस्तता के बीच वे अपना दम तोड़ती नजर आ रही हैं। लोरी का संबंध संयुक्त परिवार के साथ सीधे और स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होता है। बीसवीं शताब्दी के अंत में जीवन शैली में तो बदलाव आने प्रारंभ हुए, इक्कीसवीं शताब्दी के आते-आते उन्होंने भारतीय परिवार की परिभाषा को बहुत हद तक बदल कर रख दिया।  परिवार पति-पत्नी और बच्चों तक सीमित हो गया। कामकाजी पति-पत्नी और मार-धाड़ वाली शहरी जिंदगी। प्राइवेट कंपनियों के चलते कामकाज की परिभाषा भी इतनी बदल गई कि उसमें कार्य दिवसों में अपने खाने-पीने, हंसी-ठिठोली तक के लिए भी कोई स्थान नहीं। बच्चों की देखभाल मां से ही नहीं, दादी-नानी के हाथों से भी छिन गई और उनका पूरा दायित्व आ गया नौकरों-नौकरानियों के हाथ। मां के पास अपने लिए ही वक्त नहीं तो बच्चे को दुलारने, उसके सिर पर स्नेह का हाथ धरने की बात तो करें ही क्या! कामकाजी न होने पर भी अपनी जीवन शैली में बदलाव की हवा गांवों और कस्बों में भी प्रविष्ट हो गई। इस तरह के व्यस्त या फिर ओढ़े हुए जीवन में लोरी के लिए ढंूढने पर भी स्थान नहीं।  अभी ढंग से बच्चे बोलना भी प्रारंभ नहीं करते कि उसके कंधों पर होमवर्क का बोझ इस तरह सवार हो जाता है कि उसके आगे मानो जिंदगी के सारे रास्ते बंद हो गए हों। घर की दीवारों के बीच बच्चे के भीतर यदि कोई उम्मीद टिमटिमाती है तो वह है वीडियोगेम। अधिकांश मां-बाप अपने बच्चों को दूसरे आस-पड़ोस के बच्चों की संगति से दूर रखने के लिए उन्हें खुलकर खेलने-बोलने और अपनी मर्जी से काम करने की इजाजत ही नहीं देते।  बच्चों को समाज में अपने हमउम्र या दूसरों के साथ खुलकर व्यवहार करने के बजाय वे उन्हें वीडियोगेम लेकर देना एक बेहतर विकल्प समझते हैं। वीडियोगेम के मकडज़ाल में फंसा बच्चा होमवर्क के बाद उसी में उलझकर रह जाता है। वह उसे ही खेलते-खेलते सो जाता है, उठता है, फिर उसी में स्वयं को व्यस्त कर लेता है। पहले जन्म, फिर शैशवावस्था से लेकर बचपन तक उसका लोरी जैसे किसी आंतरिक लगाव से पाला ही नहीं पड़ता। स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि आर्थिक दबाव या फिर देखादेखी में माताएं अपने बच्चों के प्रति उत्तरदायित्व के निर्वहन से चूकती चली जा रही हैं।  इसका सीधा प्रभाव बच्चे के विकास और उसके सामाजिक व्यवहार पर पडऩा तय है। कामकाजी माताएं या घर पर रहने वाली माताएं भी अपने मोबाइल पर ज्यादा ध्यान देती हैं। मोबाइल पर अपने पसंदीदा एप्स पर समय बिताने के साथ समय लगने पर उसमें गेम भी खेल लेती हैं। वीडियोगेम और मां की व्यस्तता के दायरे में पेचीदगी से उलझा पारिवारिक वातावरण बच्चों के लोरियों के साथ-साथ और भी बहुत सारी सामाजिक-सांस्कृतिक विरासतों से दूर करता चला जा रहा है।  यदि हमारा सामाजिक और आर्थिक ढांचा इसी लीक पर चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब लोरियां मात्र और मात्र फिल्मों और कुछ स्थानीय गानों तक सीमित होकर रह जाएंगी। मानव के आदिकाल से निरंतर कलकलाती हुई प्रवाहित हो रही लोरियों की नदियों को हम उसी तरह खो देंगे जैसे कि आज स्वच्छ और पावन प्रवाहित हो रही नदियों को खोते जा रहे हैं।


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