हमारे ऋषि-मुनि, भागः 29 मुनि शुकदेव

By: Feb 29th, 2020 12:17 am

महर्षि पराशर के पुत्र थे वेदव्यास। उनके पुत्र हुए शुकदेव जी। एक समय सुमेरु पर्वत पर महर्षि वेदव्यासजी ने घोर तप कर एक तेजस्वी पुत्र की कामना की। यह गौरी-शंकर की स्थली थी। भगवान शंकर प्रसन्न हो गए। जैसी कामना की, वैसा ही पुत्र देने का वर भी दे दिया,जो उनके ज्ञान तथा सदाचार को धारण करने वाला होगा। वैसा ही हुआ भी।

घृताची अप्सरा से जन्मे शुकदेव

एक बार जब व्यासदेव अरणि मंथन कर रहे थे,तभी ‘घृताची’ अप्सरा वहां आ पहुंची और रिझाने लगी। फलस्वरूप व्यास जी का वीर्य अरणि में गिर पड़ा। उसी से शुकदेव का जन्म हुआ। जन्म के समय ही शुकदेव बारह वर्ष के बालक के समान थे। तभी गंगा जी स्त्रीरूप धारण कर उस स्थान पर पहुंची और बालक शुकदेव को स्नान करवाया। आकाश से तभी स्वतः काला मृगचर्म तथा देड भी आ पहुंचे। गंधर्वों तथा अप्सराओं ने गीत-संगीत से वातावरण को आनंदमय बना दिया। देव पुष्प वर्षा करने लगे। भगवान शंकर व पार्वती भी आए। शुकदेव का तभी उपनयन संस्कार भी करा दिया। उपनिषद, इतिहास, सभी वेद भी मानव शरीरधारी होकर आए और सेवा करने लगे। बालक ने तभी से तपश्चर्या में लीन रहना शुरू कर दिया। मन में मोक्ष का विचार था।

व्यासजी से मोक्ष का ज्ञान पाया

कुछ समय बीतने पर  शुकदेव ने अपने पिता व्यासजी से मोक्ष के विषय में कुछ प्रश्न किए। पिता ने उन्हें संतुष्ट करते हुए कहा, शरीर पानी का बुलबुला है। आज है,कल नहीं भी रहेगा। बेटा,धर्म का पालन करो। यम-नियम तथा देवी संपत्तियों का आश्रय लो। शरीर में आसक्त नहीं होना। कर्त्तव्य से कभी विमुख नहीं होना। एक-एक पल के मूल्य को पहचानो। शत्रु इसी ताक में हैं कि कब तुम्हें नष्ट कर सकें। मैं चाहता हूं कि तुम अभी इस संसार से मुंह मोड़कर, अपनी गति उस ओर ले जाओ,जहां पर तुम्हारे शत्रु तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते?

वैदिक मार्ग पर चलने की सलाह

भगवान वेदव्यास ने शुकदेव को वैदिक मार्ग पर चलने की सलाह दी और कहा कि वही महात्मा सुख पाते हैं,जो धर्म का सेवन कर परमतत्व की उपलब्धि करते हैं। वास्तविक शांति का उपाय यही है। इसी का अनुसरण करो। जो कोई दुष्टों की संगति करता है, वह हमेशा पतन के गड्ढे में गिरता है। काम, क्रोध प्रबल शत्रु हैं। इनसे बचो।

भेजा राजा जनक के पास

पिता व्यासजी ने पुत्र को एक बार तत्वज्ञान की प्राप्ति के लिए मिथिला के राजा जनक के पास भी भेजा। कई वर्षों तक अनेक कष्ट झेलकर शुकदेव जी मिथिलानरेश जनक के पास पहुंचे। द्वारपालों ने अंदर ही नहीं जाने दिया। जैसे-तैसे अंदर पहुंचे। मंत्री ने उन्हें ऐसी सुख-सुविधाएं तथा सुंदर स्त्रियां प्रदान कीं,जिन्हें देखकर भी वह विचलित नहीं हुए। उनके साथ दिन तथा रात बिताए,पूर्ण संयमित रहे। अगले दिन स्वयं राजा जनक ने उनकी पूजा करके आदर दिया। उन्होंने शुकदेव को गुरु का महत्त्व तथा वर्णाश्रम की महत्ता को समझाया। कहा जिसे ब्रह्मचर्य आश्रम में ही तत्व का ज्ञान हो जाए,उसे अन्य आश्रमों का कोई प्रयोजन नहीं है।

अब भी विद्यमान

कहा जाता है कि भगवान शुकदेव आज भी हैं तथा समय-समय पर अधिकारी भक्तों को दर्शन भी देते हैं। शुकदेव की पत्नी का नाम पीवरी बताया जाता है तथा कृष्ण गुरु प्रभु आदि 3-4 पुत्रों का भी उल्लेख है।

                 – सुदर्शन भाटिया 


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