आत्म पुराण

By: Mar 21st, 2020 12:18 am

गतांक से आगे…

यह सोच कर वह पुनः प्रजापति के समक्ष उपस्थित हुआ। प्रजापति ने उसे बताया कि जब मनुष्य सो जाता है तो उस सुषुप्तिकाल में व्यक्ति हृदयकाश में रहकर जिस माया मात्र तत्त्व का अनुभव करता है,वही आत्मा है। इंद्र यह सुन कर अज्ञान विशिष्ट प्राज्ञ जीव और आत्मा मानकर पुनः ब्रह्मलोक से चल दिया। मार्ग में चलते-चलते उसे विचार आया कि यद्यपि यह प्राज्ञा नाम वाला जीव स्वप्न पुुरुष की तरह भयभीत और दुःखी तो नहीं होता,पर वह न तो अपने को जानता है और न किसी दूसरे को जानने की सामर्थ्य रखता है। ऐसा आत्मा अमृत और अभय नहीं हो सकता। यह विचार आने से इंद्र पुनः शिक्षा ग्रहण करने वापस आ गया। तब ब्रह्माजी ने उसे पुनः पांच वर्ष ब्रह्मचर्य पूर्वक ब्रह्मलोक में निवास करने का आदेश दिया। इस अवधि के समाप्त होने पर जब इंद्र ब्रह्माजी की सेवा में उपस्थित हुआ, तो उन्होंने समझाया कि हे इंद्र तू 101 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करके ब्रह्मविद्या का सच्चा अधिकारी हो गया है। इसलिए मैं तुझे बतलाता हूं कि स्थूल,सूक्ष्म, कारण शरीरों से परे जो आनंद स्वरूप आत्मा है,वही सत्य है। वह आत्मा सदैव सुख और दुःख से अप्रभावित रहती है। तुम कहोगे कि यदि आत्मा पर सुख और दुःख का प्रभाव नहीं पड़ता तो सदैव अपने को सुखी या दुःखी क्यों अनुभव किया करते हैं? तो इसका समाधान यह है कि आत्मा सुख और दुःख का अनुभव शरीर के अभ्यास से करती है। इसलिए समाधिकाल में जब हम शरीर का संपर्क त्याग देते हैं,तो सुख-दुःख का अनुभव ही सर्वथा नहीं होता। प्रजापति  से भूमा तत्त्व का सविस्तार वर्णन सुन कर इंद्र ने अपने को कुलकृत्य अनुभव किया और प्रजापति को शिष्य भाव से नमस्कार करके देवलोक चला गया। चतुर्दश अध्याय में सामवेद के छंदोग्य उपनिषद का सारांश बताया गया था। अब इस पंचदश अध्याय में उसी सामवेद के कन उपनिषद का सार बतलाते हैं। श्री गुरुदेव कहने लगे कि हे शिष्य जब इंद्र ब्रह्माजी के आत्मज्ञान की शिक्षा प्राप्त करके स्वर्ग में लौट आया,तो अग्नि,वायु आदि देवता उसके समीप जाकर कहने लगे हे देवराज श्रोतु,नेत्र आदि पांच ज्ञानेंद्रियां को तथा जिह्वा आदि पांच कर्मेंद्रियांे को तथा मन और प्राण को अपने-अपने कार्य में कौन प्रवृत्त करता है? अगर यह कहा जाए कि हमारा जीव ही उनको प्रवृत्त करता है, तो यह संभव नहीं। क्योंकि जीव तो अपने मन में यह संकल्प करता रहता है कि इन इंद्रियों के कामों को कभी नहीं करूंगा। पर तो भी न मालूम किस कारणवश जीव उन कामों को करता है। जैसे भूत के आवेश में आया हुआ व्यक्ति अपने प्रतिकूल कार्य को भी करने लग जाता है,उसी प्रकार का आचरण यह जीव भी करता है। इससे विदित होता है कि जीव स्वतंत्र नहीं किंतु परतंत्र है। ऐसा जीव इंद्रियों का प्रेरक किस प्रकार माना जा सकता है। फिर यदि यह कहा जाए कि इंद्रियां स्वेच्छा से अपने-अपने कामों को करती रहती हैं, तो वह असंभव है। क्योंकि इस संसार में अधिकांश लोग जिस कार्य को पसंद करते हैं उसे तो रुचिपूर्वक करते हैं और जो उनको प्रतिकूल जान पड़ता है उससे दूर रहते हैं। यह अनुकूल और प्रतिकूल का निर्णय अचेतन इंद्रियां नहीं कर सकती।          – क्रमशः


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App