जैव विविधता और मानवाधिकार

By: Mar 3rd, 2020 12:06 am

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान

इन दिनों थाईलैंड के चियांग माई में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम, जीआईजेड एशिया मूल निवासी जन संगठन आदि के तत्त्वावधान में जैव विविधता के महत्त्व को समझने और 2020 से 2050 तक इस पर भविष्य की सोच का खाका तैयार करने के लिए एक बैठक हो रही है। जिसमें वैश्विक स्तर पर 2020 के बाद सामुदायिक जैव विविधता की रूपरेखा में मानवाधिकारों को जोड़ने के विषय पर विचार होगा। जैव विविधता के साथ मानवाधिकारों का मुद्दा बहुत ही महत्त्वपूर्ण और संवेदनशील मामला है। जिसे यदि वैश्विक स्तर पर मान्यता देनी हो तो सबके बीच सहमति बनाना जरूरी है। वैश्विक चिंतन में जैव विविधता के महत्त्व के प्रति चेतना आने का क्रम ज्यादा पुराना नहीं है। इसी कारण मानव समाज का व्यवहार जैव विविधता के प्रति लापरवाही वाला रहा है। यही कारण है कि हम धीरे-धीरे धरती पर से महत्त्वपूर्ण जैवविविधता को खोते जा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ के अनुमान के अनुसार विश्व से प्रति दिन कम से कम तीन जीव या वनस्पति प्रजातियां लुप्त होती जा रही हैं। जैवविविधता विनाश के मुख्य कारण अंधाधुंध विकास, एकल प्रजातियों का वनरोपण, विदेशी प्रजातियों का वनरोपण, विदेशी खरपतवार, अत्यधिक शिकार, प्रदूषण और वैश्विक तापमान वृद्धि के कारण होने वाला जलवायु परिवर्तन है। विभिन्न प्रजातियों के लुप्त होने से जहां एक ओर उन प्रजातियों पर निर्भर जीवों और मानव समुदायों की आजीविका पर बुरा प्रभाव पड़ता है। औद्योगिक विकास के लिए जरूरी कच्चे माल की आपूर्ति भी कम हो जाती है जिससे उद्योगों पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। जागरूक समाज खतरे में आ गई प्रजातियों के संरक्षण के प्रयास करते हैं। जैसे 1990 में कनाडा ने कॉड मछली का शिकार प्रतिबंधित कर दिया क्योंकि यह प्रजाति लुप्त होने के कगार पर पहुंच गई थी। जैव विविधता विनाश से मानव जाति का अस्तित्व ही संकट में आ सकता है। उदाहरण के लिए दुनिया के भोजन की जरूरतों को लगभग 20 वनस्पति प्रजातियां पूरा करती हैं, यदि उनमें से कुछ लुप्त हो जाएं तो भोजन का संकट पैदा हो जाएगा। कुछ फसलों पर कोई लाइलाज बीमारी आ जाए तो उस फसल के जंगली संबंधियों से नई किस्म विकसित की जा सकती है। दुनियां में हजारों वनस्पति प्रजातियां हैं जिनके गुण धर्म का अभी तक पता नहीं है। उपयुक्त शोध के बाद उनमें से कई बीमारियों के इलाज के लिए लाभकारी साबित हो सकती हैं। दुनिया में लगभग 12 मिलियन वनस्पति प्रजातियां हैं जिनमें से हम केवल 2 मिलियन प्रजातियों को ही पहचानते हैं और उनमें से तीसरे हिस्से के ही उपयोग को जानते हैं। इसलिए कौन सी प्रजाति भविष्य में मानव के लिए तारक सिद्ध हो जाए पता नहीं, किंतु यदि हम उन्हें जानने से पहले ही खो देंगे तो हमारा अपना भविष्य ही खतरे में पड़ जाएगा। भारत दुनिया के 19 ऐसे देशों में से एक है जिनमें सबसे ज्यादा जैव विविधता है इसलिए हमें बहुत सावधान होने की जरूरत है। दूरगामी दृष्टि से ये समृद्ध संसाधन हमारे लिए समृद्धि का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं और विश्व के लिए भी जनकल्याण का साधन बन सकते हैं। किंतु उसके लिए इन्हें बचा कर रखना होगा। जैव विविधता से ही ऐसे परिस्थिति तंत्र का निर्माण होता है जिसमें पर्यावरणीय सेवाओं के माध्यम से मानव समाज और समस्त जीव जगत के लिए बुनियादी जीवन यापन के संसाधन उपलब्ध होते हैं। यहीं से मानवाधिकारों का जैवविविधता से संबंध सिद्ध हो जाता है। जीवन, भोजन, पानी, स्वास्थ्य, स्वतंत्रता और सुरक्षा जैसे बुनियादी मानव अधिकार भी जैव विविधता की समृद्धि पर बहुत हद तक निर्भर करते हैं। जितना ज्यादा समृद्ध जैव विविधता का भंडार होगा उतना ही ज्यादा आजीविका और रोजगार के अवसर उपलब्ध होंगे। इसी तरह जितने ज्यादा मानवाधिकार उपलब्ध होंगे, उतना ही ज्यादा स्थानीय समुदायों द्वारा अपने संसाधनों को बचाने की क्षमता और सक्रियता भी विकसित होगी। हम कह सकते हैं कि जैव विविधता और मानवाधिकारों का अन्योन्याश्रित संबंध है। इस संबंध को मानवाधिकार उपलब्ध करवा कर दृढ़ किया जा सकता है। किंतु वर्तमान विकास मॉडल जैव संसाधनों का भी निर्बाध दोहन चाहता है, जिससे एक और जहां जैव विविधता के विनाश का क्रम शुरू होता है दूसरी और मानवाधिकारों का दमन भी शुरू होता है। इसलिए संतुलित वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। किंतु विज्ञान का अर्थ विज्ञान ही होना चाहिए, तकनीक की दादागिरी नहीं। दूसरा जरूरी विषय है अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जैव विविधता पोषण और परिस्थिति तंत्र द्वारा दी जाने वाली पर्यावरणीय सेवाओं का अंतरराष्ट्रीय मूल्यांकन। परिस्थिति तंत्र को हानि पहुंचाने वालों को जवाबदेह ठहराने की व्यवस्था करना जरूरी है। वरना शक्तिशाली और मनमानी करने वालों की गलतियों का दंड परिस्थिति तंत्र की रक्षा करने वाले देश और स्थानीय समुदाय नाहक ही भुगतते रहेंगे। जैसे कि अत्यधिक ग्रीन हॉउस गैसों का उत्सर्जन करने वाले देशों की मनमानी का दंड सही रस्ते पर चलने वाले देश और स्थानीय समुदाय भुगतते रहेंगे। उनके मानवाधिकारों का हनन होता रहेगा। क्योंकि इन हरित प्रभाव गैसों के उत्सर्जन से होने वाले जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव तो कृषि और जैव संसाधनों पर निर्भर स्थानीय समुदायों पर ही पड़ेगा। यही लोग हैं जिनके मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशील व्यवस्था बना कर ही टिकाऊ विकास की दिशा में आगे बढ़ने का मार्ग भी प्रशस्त हो सकेगा।


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