बुरा माने मेरी जुत्ति
अशोक गौतम
ashokgautam001@Ugmail.com
उन्होंने कांधे पर एक झोला टांग रखा था। खुद लाल, हरे, पीले, नीले। पता ही नहीं चल रहा था कि बंदे हैं तो किस रंग के? वैसे होली को तो छोडि़ए, होली के बाद भी आप जज नहीं कर पाएंगे कि इनका असली रंग है तो कौन सा है? वैसे हर पल जरूरत के हिसाब से सहजता से रंग बदलने वालों के बारे में मेरा मानना है कि जिंदगी में सफल होने के लिए अदमी को अपनी सूटेबिलिटि के हिसाब से रंग बदलने आने चाहिएं, वह हर रोज नहाने के बाद चड्ढी बदले या न। जो जिंदगी भर एक ही रंग को पसंद करता है या कि अपने चरित्र पर एक ही रंग लगाए रखता है, आज की तारीख में उसे लोग तो छोडि़ए, गधे भी पसंद नहीं करते। वे नजदीक आए तो बड़ी मुश्किल से उन्हें पहचान पाया। उनमें अपना रंग कहीं दिख ही नहीं रहा था। आते ही पूरे बदहवास मेरे मुंह पर कालिख मलते बोले, ‘बुरा न मानो होली है। बुरा न मानो होली है!’ और एक बार नहीं, दो बार नहीं, तीन बार नहीं, बार-बार वे मेरे मुंह पर कालिख मलते रहे और मुझसे बुरा न मानने का विनम्र निवेदन भी करते रहे। मेरे मुंह पर त्योहार की आड़ में कालिख लगाते हुए जब उन्होंने मुझसे निवेदन और वह भी विनम्र कर दिया, तो भला मैं बुरा कैसे मान सकता था? मैं तो जब मुझसे निवेदन भर से ही कोई बदतमीजी कर देता है, मैं अब तब भी बुरा नहीं मानता, मैं उसकी बदतमीजी को बिना पल गवाए नमन कर देता हूं। इसलिए कि मैंने बुरा मानना कभी का छोड़ दिया है। आखिर जब वे पांचवीं बार फिर मेरे पूरी तरह से काले हो चुके मुंह पर पुनः कालिख लगाने लगे तो मैंने हाथ जोड़ते कहा, ‘बंधु, मोहल्ले में काला करने को क्या मेरा ही मुंह शेष बचा है जो बार-बार मेरे ही मुंह पर कालिख मले जा रहे हो….’ माना, आज मुंह काला करने, करवाने के बाद कोई बुरा नहीं मानता । क्योंकि आज का दौर काले मुंहों का दौर है। सड़े से सड़े मुंह को भी कालिख इन दिनों इतनी प्रिय लगने लगी है कि कुछ तो अपने चरित्र को सुंदर बनाने के लिए खुद ही अपने मुंह पर कालिख मल लेते हैं। पर तुमने मेरे मुंह पर मेरे चरित्र के हिसाब से कालिख कुछ ज्यादा ही नहीं मल दी? तो वे होली की कालिख में पगला, एक बार फिर बुरा न मानो होली है, कहने के बाद अपने मुंह पर मुझसे कालिख लगवाने को मेरे हाथों में कालिख भरे झोले से मुझे कालिख देते बोले, ‘सर! ये ऐसी-वैसी कालिख नहीं, शत प्रतिशत आर्गेनिक है, किसी भी लैब में टेस्ट करवा लो। वैसे, सच कहो तो आज बाजार में आज हर रंग तो नकली है ही, पर कालिख में भी मिलवाट हो रही है।’ ‘पर यार! तुम्हें क्या बताऊं कि मैं इस मुंह को आज तक काला होने से कैसे कैसे नहीं बचाता रहा’ ‘सर आज तो जिधर देखो हर मुंह की शान कालिख ही बढ़ा रही है। कालिख वाले मुंह आम तो आम, भगवान द्वारा भी पूजे जा रहे हैं। जिन मुंहों पर कालिख नहीं, उनको जनता तो क्या, भगवान भी नहीं पूछता। ‘तो लो, एक बार फिर…. बुरा नहीं मानता होली है, ‘कह मैंने अपना काला हुआ मुंह एक बार फिर हुलिया, के आगे धरा तो बंधु ने बढ़ी शान से सबके मुंहों में मेरा मुंह मिलाते हुए एक बार फिर मेरे कालिख मले मुंह पर प्यार से कालिख मली तो मैंने उनकी प्रसन्नता के लिए उनसे कालिख ले खुद ही अपने मुंह पर कालिख मलते कहा, ‘दोस्त! गए दिन जब मैं किसी की बुरी बात का बुरा मनाया करता था। मैंने अब हरेक की हर बुरी बात का बुरा मानना छोड़ दिया है। किसी की भी बुरी बात का बुरा न मानते-मानते अब तो जिदंगी में मुस्कुराना ही शेष रह गया है बंधु! हंसना तो मैं कभी का भूल चुका हूं,’ मैंने कहा तो उन्होंने एक बार फिर मेरे मुंह पर कालिख मली, फिर अपने आप अपने मुंह पर कालिख मली और कालिख लगाने, लगवाने आगे हो लिए।
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