विकसित देश, अविकसित लोग

By: Mar 19th, 2020 12:05 am

सुरेश सेठ

sethsuresh25U@gmail.com

मियां, अभी-अभी हमें इस देश में नई सदी लाने का दावा करने वाले एक जुमलेबाज मसीहा ने बताया है कि हमारा देश बड़ा विकसित हो गया है और हम अपने पड़ोसी देश चीन, जिसने आज तक हमारी नाक में दम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, से भी कहीं तेजी से हम विकास पथ पर भाग रहे हैं। हमें दुनिया का सबसे बड़ा विकास धावक कह सकते हैं। हम अपने बिवाइयां फटे पांवों और पीठ से सटे पेट को देख कर हैरत करते हैं कि ‘अरे हम इतनी तेजी से भाग कर दुनिया में सबसे आगे हो गए और हमें खबर भी नहीं हुई’ कल तक तो हमें भूख से मरने वाले देशों का सूचकांक बता रहा था कि हम इन भुखमरे देशों के ताज की मुकुट मणि हैं, आज अचानक यह अच्छे दिन आ गए कि नारे कैसे उठने लगे? इस बात को कैसे भूलें कि कल तक जो योजनाबद्ध आर्थिक विकास की दृष्टि से एक विकासशील देश कहलाता था, उसे आज फिर संयुक्त राष्ट्र के विकास मूल्यांकन प्रकोष्ठ ने अल्प विकसित देश बना दिया? हां, विदेशी महाप्रभुओं के दर्जा संस्थान इतनी दया दृष्टि हम पर अवश्य दिखाते हैं कि व्यापार की साख और सुविधा की दृष्टि से आपका देश बेहतर हो गया, लेकिन पहले यह निवेश विरोधी कानूनों की बंदिश हटाओ, निवेश से हम जितना चाहे कमा कर लाएं, उसकी लूट को अपने देश से ले जाने की खुली इजाजत दे दो और हड़ताल के अधिकार, श्रम हितैषी कानूनों का बोरिया बिस्तर बांधें, तभी वे आपके देश में निवेश नहीं करते। लीजिए ‘मेक इन इंडिया’ और ‘मेड इन इंडिया’ के नारे पिछले चार वर्षों से अंतरिक्ष में गूंजते रहे। मोदी जी की विदेश यात्राओं में ‘मोदी मोर’ के नारे उठते रहे, लेकिन वह न आएंगे पलट कर चाहे लाख हम बुलाएं’ के अंदाज में न नौ मन तेल हुआ और न राधा नाची। अर्थात जिस निवेश के लिए हमने अपनी आंखों के गलीचे बिछाए वह तो आया नहीं, हां, आए तो शेयर मंडियों के अग्रिम सौदों के उस्ताद आए, जिन्होंने ‘खाया-पीया कुछ नहीं गिलास तोड़ बारह आना’ के अंदाज में लिया दिया कुछ नहीं और अपनी कागजी लेन-देन से शेयर मार्केट को उछाल आसमान तक पहुंचा दिया, लेकिन ऐसी ऊंचाई किस काम की थोड़ी सी अफवाह पर ही तो वह मंडियां धड़ाम से फिर नीचे गिर जाती हैं। अजी मियां मुंह न बिसूरो। पूरा देश काम धाम छोड़ जुआ खेलने में लगा है या शर्ते लगा रहा है। इन्हीं की कृपा से कल के राजा आज रंक हो रहे हैं, और कल के रंक आज राजा। शर्ते लग रही हैं, क्रिकेट के नतीजों से लेकर मौसम के नतीजों तक। लोग काम धाम छोड़ कर हाथ की लकीरें पट रहे हैं। कभी अच्छे खासे मेहनती लोगों का देश निठल्ले लोगों का देश बनता जा रहा है, क्योंकि वंचित मजदूर या किसान को स्वचालित मशीनें खा गईं। यहां संपन्नता के शीर्ष पर हरकत नजर आती है, क्योंकि अमीर और अमीर हो गया। उन करोड़ों गरीबी रेखा से नीचे जीने वालों का क्या हाल पूछते हो? उनका तो हर दिन मयस्सर होने वाला दिहाड़ी में एक जून भोजन भी पंचतारा गैर-सरकारी सेवा संस्थाओं की अनुकंपा से चलने वाली सस्ती रसोइयों की भेंट हो गया। यह रसोइयां चार दिन की चांदनी और फिर अंधेरी रात है की तरह अपनी दया का जलवा दिखा कर बंद हो जाती हैं, लेकिन देश में भूखों, बेकारों और आत्महत्या के लिए तैयार होते दुखी जीवों की कतार निरंतर कम नहीं होती, बढ़ती जा रही है। इनका ‘अच्छे दिन’ आने का सपना भयावह यथार्थ के झटके से बार-बार टूटता है, लेकिन अब तो ऐसी नींद निरापद नहीं। क्लब घरों से निकलते नशे में धुत्त धनकुबेरों की वातानुकूलित आयातित गाडि़यां कब इन्हें कुचल कर निकल जाएं, क्या खबर? आधी रात को शिकार हो गए लोगों की मौत का कोई साक्षी नहीं मिलता।


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