विवेक चूड़ामणि

By: Mar 21st, 2020 12:15 am

गतांक से आगे…

परावरैकत्व विवेक वह्निर्दहत्य विद्यागहनु ह्यशेषम।

किं स्यात्पुनः संसरणस्य बीजमद्वैतभावं समुपेयुषोऽस्य।।

ब्रह्म और आत्मा का एकतवज्ञान स्वरूप अग्नि अविद्या गहन वन को समस्त रूप से भस्म कर देता है। (अविद्या कि सर्वथा नष्ट हो जाने पर)जब जीव को अद्वैत भाव की प्राप्ति हो जाती है,तब ऐसा कोई कारण ही नहीं रह जाता, जिससे वह पुनः संसार को  प्राप्त हो अर्थात जिससे उसका पुनः जन्म हो।

आवरणस्य निवृत्ति भर्वति च सम्यक्पदार्थ दर्शनतः। मिथ्याज्ञानविनाश स्तद्वद्विक्षेपजनितदुःख निवृत्ति।। 

आत्मतत्व का ठीक-ठीक साक्षात्कार हो जाने से आवरण का नाश हो जाता है, परिणामस्वरूप मिथ्याज्ञान का नाश और विक्षेपजनित दुःख की निवृत्ति हो जाती है।

अधिष्ठान निरूपण

स्वर्ण के आभूषणों में यदि स्वर्ण को निकाल लिया जाए,तो वहां क्या रह जाएगा? निश्चित रूप से कुछ भी नहीं। अधिष्ठान का अर्थ है, जिसकी वजह से सब है,सब हो रहा है। लेकिन अस्तित्व और क्रियाओं का आधार होने पर भी उसमें कोई दोष विकार नहीं होता। टूटना,बिखरना, बनना आदि क्रियाएं अधिष्ठान में नहीं होती हैं, अधिष्ठान का प्रतीत होता है ऐसा। सोना तो सोना ही रहता है। ज्ञान होते ही उसमें प्रतीती होने वाले विकार न तो सुखी करते हैं, न दुखी। ऐसे में ही आनंद की परम अनुभूति होती है।

एतत्त्रितयं दृष्टं सम्यग्रज्ज ुस्वरूप विज्ञानात।

तस्माद्वस्तु सतत्त्वं ज्ञातव्यं बंधमुक्तये विदूषा।।

 (रज्जु में भ्रम के कारण सर्प की प्रतीती होती है और उस मिथ्या प्रतीती से ही भय,कंप आदि दुःखों की प्रतीती होती है किंतु दीपक आदि के द्वारा जिस प्रकार) रज्जु के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान होते ही रज्जु का अज्ञान जन्य सर्प और सर्प प्रतीती से होने वाले भय,कंप आदि ये तीनों एक साथ निवृत्त होते देखे जाते हैं। (उसी प्रकार आत्मास्वरूप का ज्ञान होने पर आत्मा का अज्ञान, अज्ञानजन्य प्रपंच की प्रतीती और उससे होने वाले दुःख की एक साथ ही निवृत्ति हो जाती है)। इसलिए संसार बंधन से छूटने के लिए विद्वान को तत्त्वसहित आत्मपदार्थ का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।

अयोऽग्नियोगादिव सत्समन्वयान मात्रादिरूपेण विजृम्भते ध्रीः।

तत्कार्यमेतद्द्वितयं यतो मृषा दृष्टं भ्रमस्वप्न मनोरथेषु।।

अग्नि के संयोग से जैसे लोहा कुदाल आदि नाना प्रकार के नाम रूपों को धारण करता है उसी प्रकार आत्मा के संयोग से बुद्धि (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध आदि) नाना प्रकार के विषयों में प्रकाशित होती है। यह द्वैत प्रपंच उस बुद्धि का ही कार्य है,इसलिए मिथ्या है,क्योंकि भ्रम,स्वप्न और मनोरथ के समस इसकी प्रतीती का मिथ्यात्व स्पष्ट रूप से देखा जाता है।

ततो विकाराः प्रकृतेरहंमुखा देहावासना विषयाश्च सर्वे।

क्षणेऽन्यथाभावितया ह्यमीषा मसत्त्वमात्मा तु कदापि नान्यथा।।

इसलिए अहंकार से लेकर देह तक प्रकृति के सभी विकार अथवा विषय क्षण-क्षण में बदलने वाले होने के कारण असत्य हैं,आत्मा तो कभी नहीं बदलती, वह तो सदा एकरस ही रहती है।                             – क्रमशः


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