आत्म पुराण

By: Apr 4th, 2020 12:05 am

गतांक से आगे…

इस प्रकार का विचार चेतन ही कर सकता है।  देवताओं की शंका सुनकर इंद्र कहने लगे हे देवगण, जो आत्मा देव श्रोतादिक समस्त इंद्रियों का भी इंद्रिय रूप है, जो मन का मन रूप है,प्राण का भी प्राण रूप है,जिसको ब्रह्मा ने जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं से रहित कहा है,वह आत्मादेव अपनी समीपता मात्र से सर्व देहधारी जीवों का तथा श्रोत नेत्र आदि सर्व इंद्रियों का प्रेरक है। उस आत्मदेव को मन तथा इंद्रिय कभी नहीं समझा सकते। ऐसे आत्मदेव का उपदेश मैं तुम्हारे सामने कैसे कर सकता हूं। वह आत्मदेव समस्त विदित पदार्थों से भी भिन्न है। हम देवगण आत्मा के दहराकाश नाम रूपी की उपासना करते हैं। वह दहरा केवल ध्यान करने योग्य है,वह जानने योग्य विषय नहीं है। यदि ऐसे देहराकाश नाम के ध्येय रूप को तुम ज्ञेय मानते हो तो यह बड़े आश्चर्य का विषय है। हे शिष्य इस प्रकार वे अग्नि,वायु आदि देवता इंद्र के मुख से ब्रह्म विद्या का उपदेश सुनकर ब्रह्मभाव को प्राप्त हो गए। उस ब्रह्म विद्या के प्रभाव से सब लोगों को प्राप्त हो गए। उन्होंने सब शत्रुओं पर जय प्राप्त की। ब्रह्मविद्या परायण देवताओं के समीप जाने से असुर इस प्रकार क्षय हो गए जैसे अग्नि की समीपता से पतंगा नाश को प्राप्त होता है।

शंका- हे भगवन! जो ब्रह्म ही अपनी शक्ति से देवताओं की जय और असुरों की पराजय का कारण हो,तो उस पर सामान्य संसारी जीवों के सामान्य पक्षपात का दोष लगेगा।

समाधान- हे शिष्य! जैसे सर्व प्रकाशमान सूर्य अत्यंत निर्मल सूर्यकांति मणि में विशेष तेज को प्राप्त हो जाता है, वैसे ही सर्वत्र व्यापक ब्रह्म सत्वगुण प्रधान देवताओं में विशेष शक्ति को प्राप्त होता है। इस कारण देवता विशेष तेज वाले हो गए। हे शिष्य! जैसे पुतलियों का नाच कराने वाला सूत्रधार खेल दिखाने के उद्देश्य से कुछ पुतलियों को जिता देता है और कुछ को हरा देता है,उसी प्रकार परमात्मा देव इन देवता और असुर रूप पुतलियों को जिताता और हराता रहता है। इस तरह के व्यवहार में पक्षपात का कोई विचार नहीं किया जा सकता। फिर यह भी कहना ठीक नहीं कि विजय सदा देवताओं की ही होती है। जब देवगण दो-चार बार सफल होकर अहंकारी बन जाते हैं और अपनी सफलता का कारण परमात्मा की कृपा नहीं वरन अपनी शक्ति सामर्थ्य समझने लगते हैं, तो चेतन सत्ता उनको भी दंड देने में नहीं चूकती। अभिमान और अहंकार ऐसा दोष है जिससे जीव सदा विनाश को प्राप्त होता है। इसलिए जब देवगण इस प्रकार विचार करने लग गए कि हम देवता ही मन का निग्रह रूप शाम का अभ्यास रखने वाले हैं। हम ही इंद्रियों का दमन करने वाले हैं। हम ही महान कुल वाले हैं,हम ही महान कीर्ति वाले हैं, महान भाग्य वाले हैं। हम अपनी शक्ति से तीन लोक का पालन करने वाले हैं। हमारे आगे असुरों की क्या गिनती है। ऐसा गर्व सदा रजोगुण से उत्पन्न होता है और पाप का कारण होता है। जब परमात्मा उन देवताओं को इस प्रकार गर्व पूर्वक अनुचित आचरण करता देखता है, तो वह विचार करता है कि इस प्रकार की कृतघ्नता का भाव जीव के लिए कभी कल्याणकारी नहीं हो सकता। परमात्मा के अनुग्रह से ही देवताओं की विजय होती है।      


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