कोरोना के बाद बदल जाएगी दुनिया

By: May 5th, 2020 12:06 am

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान

उस पर सस्ते उत्पादन के लिए एक ओर प्राकृतिक कच्चे मालों का मूल्यांकन अन्यायपूर्ण तरीके से कम आंका जाता है, दूसरी ओर सस्ते श्रम की खोज और श्रम की जरूरतों को घटाने की क्षमता के विकास के लिए ऑटोमेशन को प्रोत्साहित करके रोजगार के अवसरों को समाप्त करते जाने का रास्ता पकड़ा गया है। जाहिर है कि विज्ञान की प्रगति के कारण मानव समाज को बेहतर जीवन प्रदान करने के जो हालात पैदा हो रहे हैं, उन पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों और उनकी आश्रयदाता सरकारों का वर्चस्व और कब्जा होता जा रहा है…

कोरोना महामारी ने दुनिया को एक ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है कि आने वाले समय के बारे में कई सारे संशय खड़े दिख रहे हैं। वैश्विक संबंधों में नए ध्रुवीकरण सामने आने की दिशा के संकेत मिलने लगे हैं। एक ओर चीन के प्रति बढ़ते अविश्वास का दौर शुरू हो गया है तो दूसरी ओर विश्व स्वास्थ्य संगठन, संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्थाओं की कमजोरी का उजागर होना और यूरोपियन यूनियन के आपसी संबंधों में बिखराव के लक्षण दिखने लगे हैं। विश्व व्यापार संगठन की कारकरदगियों और उपयोगिता पर नए प्रश्नचिन्ह लगना भी स्वाभाविक हैं। विश्व समाज को यह समझ आने लगेगा कि स्थानीय अर्थतंत्र का सशक्त होना ऐसी आपद्कालीन परिस्थितियों में कितना जरूरी है। एक बार फिर गांधी के स्वावलंबी अर्थशास्त्र के चर्चा में आने और आंशिक ही सही, प्रासंगिक बन जाने की संभावना है। विश्व एक गांव की अवधारणा की सीमाएं और खतरे भी उजागर होंगे। एक ओर सार्वजनिक उपक्रमों पर निर्भर अर्थतंत्र और दूसरी ओर बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा नियंत्रित अर्थव्यवस्थाएं, दोनों ही प्रजातांत्रिक निर्णय प्रक्रिया को कमजोर करने में रुचि रखती हैं। ये दोनों उत्पादन पद्धतियां एक ख़ास तरह की तानाशाही और एकाधिकारवाद को बनाए रखने या प्रोत्साहित करने में अपना हित देखती हैं।

इस परिस्थिति  में एक ओर जहां उत्पादन में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के अभाव में उत्पादों की गुणवत्ता और नवाचार की खोज कमजोर होती है तो दूसरी ओर अनावश्यक उपभोक्तावाद, ‘प्रयोग करो और फेंको’ संस्कृति जैसी पर्यावरण और पारिस्थितिकीय संतुलन को नष्ट करने वाली प्रक्रियाएं चल निकलती हैं, जिसमें हर कुछ बिकने-खरीदने की चीज बन जाता है। हवा, पानी, मिट्टी, पेड़, पहाड़, जीव-जंतु और आदमी तक। लॉकडाउन में आदमी की गतिविधियों को विराम लगा तो गंगा निर्मल हो गई। जालंधर से धौलाधार की हिमाच्छादित चोटियां दिखाई देने लग पड़ीं। एक बात बड़ी स्पष्टता से समझ आने लगी कि आदमी के बिना प्रकृति तो बढि़या फले-फूलेगी, पर प्रकृति के बिना आदमी का जीना दूभर हो जाएगा। एक अदना सा वायरस जो हमारी ही प्रकृति विनाशक जीवन पद्धति की उपज होगा, पूरी दुनिया की रफ्तार को इस तरह विराम लगा देगा, किसने सोचा था। इस झटके के बाद कई बातों को नए सिरे से परिभाषित करना पड़े तो कोई हैरानी की बात नहीं होनी चाहिए। बल्कि समझदारी इसी में है कि अहंकार छोड़ कर कुछ नया सोचें, प्रकृति मित्र जीवन पद्धति अपनाएं और उसी को मजबूत करने वाली उत्पादक और शासकीय पद्धतियों का विकास करें। ऐसा तभी संभव है यदि हम नम्रता से यह कबूल कर सकें कि हमने अंतिम सत्य के दर्शन नहीं किए हैं। इसलिए आगे नया सोचने, खोजने की अनंत संभावनाएं हमेशा बनी रहेंगी। यह बात भी समझ में आ जानी चाहिए कि विपत्ति के समय सबसे जरूरी वस्तु भोजन ही होता है। इसलिए भोजन के मामले में आत्मनिर्भरता के साथ समझौता नहीं किया जा सकता। यह सोच कर नहीं बैठ सकते कि जरूरत पड़ने पर आस-पड़ोस या दूसरे देशों से मंगवा लेंगे। इस परिस्थिति से दो-चार होने के लिए श्रम और प्रकृति के शोषण से बाहर निकलना होगा और ऑटोमेशन की तकनीकों को भी सीमित करना होगा। किंतु अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा के वातावरण में कोई एक  देश इस दिशा में कैसे आगे बढ़ सकता है। देशों की सुरक्षा का ही मामला लें। दुनिया के सबसे अच्छे वैज्ञानिक और बड़ी मात्रा में आर्थिक संसाधन युद्ध विज्ञान की प्रगति की भेंट चढ़ रहे हैं। किंतु क्या कोई एक देश निःशस्त्रीकरण अपनी ओर से एकतरफा लागू कर सकता है? नहीं। जो जोर-शोर से निःशस्त्रीकरण की वकालत करते हैं, वही सबसे ज्यादा शस्त्र भंडार भी इकट्ठा कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ पर भी कब्जा जमाए हुए हैं और वहां से भी कोई नई, बेहतर नियंत्रण विधि के विकास में बाधा बने रहते हैं। ऐसे में किसी अन्य देश से कैसे यह उम्मीद की जा सकती है कि वह इनके निःशस्त्रीकरण के उपदेशों को गंभीरता से ले।

असुरक्षा की भावना का बीजारोपण और उसके सहारे शांति की खोज का दिखावा कोरा भ्रम नहीं तो और क्या है। शक्ति संतुलन के सिद्धांत से शांति तो नहीं सध सकती। क्या हम मनोवैज्ञानिक विकास के स्तर पर कबीलाई मानसिकता  से बाहर निकलने में असमर्थ सिद्ध नहीं हो रहे हैं। अब उत्पादक प्रक्रियाओं और व्यापार की व्यवस्थाओं को भी देखिए। विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के पीछे विचार तो यह था कि दुनिया में खुला व्यापार हो और जहां जो वस्तु अच्छी और सस्ती तैयार हो सकती है, वहां वह तैयार हो और इससे अच्छी और सस्ती वस्तुओं का लाभ सारे विश्व को मिलेगा। किंतु उसका व्यावहारिक रूप बहुराष्ट्रीय कंपनियों का सशक्त होते जाने, अपने आप में एक शासकीय इकाई की नीतियों को प्रभावित करने की भूमिका में प्रतिस्थापित हो जाने और एक नई तरह के एकाधिकार को जन्म देकर अन्य देशों के उत्पादक उपक्रमों को निगल कर और वैश्विक व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित करने की दिशा में बढ़ रहा है। उस पर सस्ते उत्पादन के लिए एक ओर प्राकृतिक कच्चे मालों का मूल्यांकन अन्यायपूर्ण तरीके से कम आंका जाता है, दूसरी ओर सस्ते श्रम की खोज और श्रम की जरूरतों को घटाने की क्षमता के विकास के लिए ऑटोमेशन को प्रोत्साहित करके रोजगार के अवसरों को समाप्त करते जाने का रास्ता पकड़ा गया है। जाहिर है कि विज्ञान की प्रगति के कारण मानव समाज को बेहतर जीवन प्रदान करने के जो हालात पैदा हो रहे हैं, उन पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों और उनकी आश्रयदाता सरकारों का वर्चस्व और कब्जा होता जा रहा है। ऊपर से यदि कोरोना जैसी कोई अलामत पैदा होती है तो वह अंतरराष्ट्रीय विकरालता ग्रहण कर ले रही है। हम विज्ञान में तो बहुत आगे आ गए हैं, किंतु व्यवस्थाओं के मामले में अभी भी वर्तमान की जरूरतों से काफी पीछे चल रहे हैं। युद्धक तैयारियों और व्यापारिक गलाकाट प्रतिस्पर्धाओं के बीच देश स्तर पर स्वावलंबी अर्थ व्यवस्थाओं की प्रासंगिकता और संयुक्त राष्ट्र संघ के सशक्त मानवतावादी संस्करण के विकास से संभव निःशस्त्रीकरण से ही कुछ ठंडी हवा के झोंकों की उम्मीद की जा सकती है।


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