क्षणभंगुर संसार

By: May 23rd, 2020 12:20 am

बाबा हरदेव

भगवान श्रीकृष्ण का गीता में फरमान हैः

अनित्यमसुखम् लोकमिभं प्राप्य भजस्व माम्।

श्रीकृष्ण फरमा रहे हैं कि जिस सुखरहित क्षणभंगुर संसार में जहां हम रह रहे हैं, वहां सुख का आभास तो बहुत होता है परंतु सुख मिलता नहीं, बल्कि मिलता है तो दुख हाथ में आता है। दूर से दिखाई देने पर सुख का भ्रम होता है, परंतु पास जाने पर पता चलता है कि वह दुख ही है। यह दूरी की भूल है कि दूर से जैसा दिखाई पड़ता है वैसा पास जा कर पाया नहीं जाता। भगवान श्रीकृष्ण ने जो सुख रहित संसार के विषय में फरमाया है उसमें एक गहरा रहस्य छिपा हुआ है। यदि गहराई से विचार करें, तो हमें पता चलता है कि दुख तो इसलिए पैदा होता है कि हम इस जगत को सुख मान लेते हैं। इस कारण श्रीकृष्ण ने फरमाया है कि हमने इस जगत को ठीक से समझा नहीं है। क्योंकि हम संसार को ही सुखों का स्रोत मानते हैं इसी कारण हमें दुख मिलता है, वरना संसार हमें दुख नहीं देता। उदाहरण के तौर पर हम किसी से आशा करते हैं कि वह हमारा सम्मान करेगा, हमारा आदर करेगा और यदि वह व्यक्ति हमारा आदर न करे, सम्मान न करे, तो हमें दुख का अनुभव होता है। जबकि उस व्यक्ति ने हमें दुख दिया ही नहीं। परंतु हमने दुख का अनुभव किया बिना उस व्यक्ति के दिए। इस प्रकार हमारा कोई परिचित व्यक्ति हमारे पास से हमें बिना अभिवादन किए निकल जाता है, तो हम दुखी होते हैं जबकि उस व्यक्ति को यह पता भी नहीं होता कि उसने हमें कोई दुख दिया है। इस प्रकार दुख देने में उसका कोई हाथ नहीं होता। अब प्रश्न पैदा होता है कि इस प्रकार का दुख कहां से पैदा हुआ? वास्तविकता  तो यह है कि दुख हमारी अपनी ही अपेक्षा से जन्मा होता है। हमने अपेक्षा की थी कि हमारा सम्मान हो, हमारा आदर हो, हमें कोई अभिवादन करे, जबकि यह सब हुआ नहीं। इससे हमारी अपेक्षा टूटी और टूटी हुई अपेक्षा ही हमारे दुख का कारण बन जाती है। अतः हम कह सकते हैं कि सुख की आशा करना ही दुख का कारण बन जाता है। इस प्रकार जगत दुख है, यह कहना उचित नहीं। जैसे श्रीकृष्ण फरमाते हैं कि सुख रहित है अर्थात जगत में कोई सुख नहीं है और यदि हम हृदय से इस सच्चाई को स्वीकार कर लेते हैं, तो फिर हमें जगत में दुख नहीं हो सकता और न कोई  हमें इस जगत में दुख दे सकता है। किसी व्यक्ति से हमें उसी सीमा तक दुख मिल सकता है जिस सीमा तक हम उस व्यक्ति से सुख मांग सकते हैं यानी हमारे सुख मांगने की मात्रा ही किसी व्यक्ति की क्षमता है दुख देने की। यदि हम कुछ भी नहीं मांग रहे हैं, तो कोई व्यक्ति हमें दुख नहीं दे सकता। दुख स्व अर्जित है। जगत तो सुखरहित है,हमारी अपनी अपेक्षा ही हमें दुख देने का कारण साबित होती है। अकसर हमें ऐसा लगता है कि जगत स्थिर है और हम इस स्थिर जगत में जी रहे हैं जबकि वास्तविकता यह है कि जगत प्रतिक्षण बदलता जा रहा है और यह परिवर्तन इतनी तीव्रता से हो रहा है कि दिखलाई नहीं देता। उदाहरण के तौर पर हम एक नदी के किनारे खड़े हैं और नदी का जल बहता जा रहा है हम सोचते हैं कि नदी की अवस्था वही है, जबकि नदी प्रतिक्षण अपना स्वरूप बदलती जा रही है। इसी प्रकार हम किसी पहाड़ के किनारे खड़े हों और यह सोचे कि पहाड़ अपरिवर्तनशील है, तो यह हमारा भ्रम होगा क्योकि यह पहाड़ भी परिवर्तनशील है,क्योंकि जो पहाड़ पहले की स्थिति में नजर आते थे अब वे किसी और स्थिति में नजर आ रहे हैं।


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