भयंकरजी का व्यंग्य लेखन

By: May 22nd, 2020 12:05 am

पूरन सरमा

स्वतंत्र लेखक

भयंकरजी धीर-गंभीर आलोचक थे। मेरे जैसे लेखक से बात करना उनकी शान के खिलाफ था, लेकिन आलोचना की हालत खस्ता होने से न तो लेखक उन्हें पुस्तकें भेज रहे थे और न ही स्व-प्रेरणा से लिखी उनकी आलोचना कोई पत्र छाप रहा था। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि अपने आपको लाइम लाइट में रखने के लिए वे क्या करें? अंत में हारे को हरि नाम होता है। उन्हें लगा कि व्यंग्य का बाजार गर्म है और व्यंग्य के नाम पर कुछ भी लिखा जा सकता है। कुछ भी लिखकर ऊपर मात्र ‘व्यंग्य’ लिखा और हो गया व्यंग्य। इसी ख्याल से उन्होंने अपने आपको व्यंग्य की ओर उन्मुख किया और लिख मारा रेलवे स्टेशन मास्टर की बेबसी पर व्यंग्य। व्यंग्य लिखने के बाद वे आ धमके मेरे पास। मैंने आश्चर्य से कहा-‘प्रभो, यह उल्टी गंगा क्यों? मुझ अनाथ को बुला लिया होता, आपने कष्ट क्यों किया?’ भयंकरजी थोड़े से हंसे और बोले-‘शर्मा, कोई उल्टी गंगा नहीं बही। मुझे ही आना था इस बार तुम्हारे पास। तुम प्रतिभा के पुंज हो, यह देखो मैंने एक व्यंग्य रचना लिखी है। इसे पढ़कर बताओ कि यह ‘व्यंग्य’ बना या नहीं।’ मैंने कहा-‘आपने ऊपर ‘व्यंग्य’ तो लिख दिया न। जहां तक पढ़ने का सवाल है, मैं आपकी व्यंग्य रचना क्या पढ़ूंगा। आप ठहरे मूर्धन्य और स्वनामधन्य आलोचक, आपको पता है एक अच्छी रचना कैसे लिखी जाती है। उसमें क्या गुण होते हैं। उसका परफेक्ट सांचा आपके पास है, इसलिए मुझे शर्मिंदा मत करिए। मैं रचना छपने के बाद तो आपकी रचना पढ़ सकता हूं, लेकिन अप्रकाशित रचना पर कोई कमेंट करूं, यह मेरे जैसे छोटे लेखक को शोभा नहीं देता।’ भयंकरजी ने इस बार विचित्र प्रकार का मुंह बनाया और दांत पीसने के बाद दिखावे की हंसी के लिए दो दांत दिखाए और कहा-‘शर्मा तुमने व्यंग्य में शोहरत पाई है, मुझे पता है तुम बेबाक राय इस व्यंग्य रचना पर दे सकते हो।’ भयंकरजी के कथन पर मैं निरुत्तर हो गया। उनके हाथ से रचना लेकर मैंने उस तथाकथित व्यंग्य रचना को पढ़ा, एक पल सोचा और बोला-‘यह द्विवेदी कालीन जैसा लेखन है भयंकरजी। मेरा मतलब यह व्यंग्य नहीं, स्टेशन मास्टर पर रेखाचित्र है। उसकी बेचारगी का वर्णन है। आप इसे व्यंग्य क्यों कह रहे है?’ भयंकरजी एक पल को पसोपेश में पड़ गए, फिर बोले-‘फिर इसमें व्यंग्य कैसे आ सकता है, व्यंग्य भी आए तो धारदार, ताकि छपते ही हाहाकार मच जाए।’


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