शहीदों के सिरताज श्री गुरु अर्जुन देव

By: May 23rd, 2020 12:23 am

बलिदान दिवस 26 मई

गुरुगद्दी पर बैठते ही गुरु जी ने अपने पिता द्वारा आरंभ किए सभी कार्यों को जिम्मेदारी से पूर्ण करने का कार्य शुरू कर दिया। आपने सिखों को अपनी कमाई का दसवां हिस्सा धार्मिक व सामाजिक  कार्यों में लगाने के लिए प्रेरित किया तथा इसे धर्म का अंग बना दिया…

गुरु अर्जुन देव जी का जन्म सन् 1563 में 15 अप्रैल के दिन चौथे गुरु श्रीगुरु रामदास जी के घर हुआ था। उनकी माता जी बीबी भानी जी थीं। आप बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि तथा शांत स्वभाव वाले थे। उन्हें गुरबाणी कीर्तन का बड़ा शौक था। उनके अंदर के श्रेष्ठ गुणों को देख पिता रामदास ने मात्र 18 वर्ष की आयु में उन्हें गुरुगद्दी सौंप दी थी। गुरुगद्दी पर बैठते ही गुरु जी ने अपने पिता द्वारा आरंभ किए सभी कार्यों को जिम्मेदारी से पूर्ण करने का कार्य शुरू कर दिया। आपने सिखों को अपनी कमाई का दसवां हिस्सा धार्मिक व सामाजिक  कार्यों में लगाने के लिए प्रेरित किया तथा इसे धर्म का अंग बना दिया। सभी इन कार्यों में बढ-़ चढ़कर हिस्सा लेने लगे। अमृतसर सरोवर की नींव गुरु रामदास जी रखवा चुके थे। गुरु अर्जुन देव जी संगत के साथ स्वयं सेवा करते। प्रमुख भूमिका बाबा बुड्ढा जी ने निभाई। यह सरोवर संपूर्ण होने के पश्चात गुरु जी ने गुरु के महल, ड्योढ़ी साहिब, संतोखसर आदि का निर्माण करवाया। इसके पश्चात अमृतसर सरोवर के बीचोंबीच हरमंदिर साहिब बनाने का विचार गुरु जी ने किया। इसका नक्शा स्वयं उन्होंने बनाया तथा उसकी नींव मुसिलम फकीर मियां मीर जो गुरु घर के बहुत श्रद्धालु थे उनसे रखवाई। संवत् 1661 में इमारत पूरी होने पर यहां गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाश किया गया तथा बाबा बुड्ढा जी को पहला ग्रंथी नियुक्त किया गया। इसके पश्चात गुरु जी ने तरनतारन सरोवर तथा शहर की स्थापना की। यहां पर उन्होंने एक आश्रम बनवाया, जिसमें कुष्ठ रोगियों की सेवा, उनके आवास की, दवा दारू की व्यवस्था की गई। इसके साथ ही उन्होंने जालंधर, छिहरटा साहिब, श्री हरगोबिंदपुरा, गुरु का बाग, श्रीरामसर आदि स्थानों का निर्माण कराया। रामसर सरोवर के किनारे बैठकर उन्होंने भाई गुरुदासजी से श्रीगुरु ग्रंथ साहिब की बाणी लिखवाई। सिख धर्म की यह उन्नति कईयों को नहीं सुहाती थी। यहां तक कि गुरु जी के बड़े भाई प्रिथी चंद को भी नाराजगी थी कि उनके पिता ने छोटे बेटे को गुरुगद्दी सौंप दी। वह लाहौर के नवाब को गुरु जी के विरुद्ध भड़काता रहता।

दूसरी ओर लाहौर का दीवान चंदू गुरुजी के बेटे हरगोबिंद जी से अपनी बेटी का रिश्ता टूट जाने के कारण उनका घोर विरोधी बन गया था। ऐसे माहौल में अकबर की मृत्यु के बाद जहांगीर मुगल साम्राज्य के तख्त पर बैठा। गुरु साहिब के विरोधी अब सक्रिय हो गए। उन्हीं दिनों जहांगीर के पुत्र खुसरो ने बगावत कर दी। जहांगीर ने उसे गिरफ्तार करने का आदेश दिया। वह पंजाब की ओर भागा तथा तरनतारन में गुरु अर्जुन देवजी के पास पहुंचा। गुरु जी ने उसका स्वागत किया और आशीर्वाद दिया। जहांगीर को मौका मिल गया उसने उल्टे सीधे आरोप लगाकर गुरु जी को गिरफ्तार कर लिया। उन्हें शहीद करने का भय दिखाकर उनसे अपनी मर्जी करवाने की कोशिश की गई। गुरु जी ने झूठ का साथ देने की बजाय शहादत का रास्ता चुना।

जहांगीर ने उन्हें शहीद करने का हुकम दे दिया और लाहौर के हाकिम मुर्तजाखान के हवाले कर दिया। मुर्तजाखान ने गुरुघर के द्रोही चंदू को उन्हें सौंप दिया। चंदू की यातनाओं का दौर शुरू हुआ। पहले दिन गुरु जी को गर्म तवे पर बैठाकर शीश पर गर्म रेत डाली गई। फिर उन्हें देग में बैठाकर उबलता पानी डाला गया। पांच दिनों तक इसी प्रकार के अनेक कष्ट उन्हें दिए गए थे। छठे दिन उनके अर्धमूर्छित शरीर करे रावी नदी में बहा दिया गया। साई मियां मीर ने गुरु जी को छुड़वाने की कोशिश की पर गुरु जी ने कहा, क्या हुआ जो यह शरीर तप रहा है, प्रभु के प्यारों को उसकी रजा में खुश रहना चाहिए। जहां गुरु जी की देह को बहाया गया उस स्थान पर गुरुद्वारा डेरा साहिब बनाया गया जो पाकिस्तान में है।

-नरेंद्र कौर छाबड़ा, औरंगाबाद


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