सांप्रदायिक दुर्भावना का मूल है धर्मांतरण, कुलभूषण उपमन्यु, अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान

By: May 30th, 2020 12:06 am

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान

केवल धर्म के बूते चलने वाले समाज कहां हैं? यदि होते तो शासन व्यवस्था की जरूरत ही नहीं होती। जहां धर्मों ने शासन व्यवस्था को संभाल लिया है, वहां भी धार्मिक उपदेशों से नहीं बल्कि ज्यादा कड़े कानूनों से ही समाज को चलाना पड़ता है। इसका अर्थ हुआ कि सामाजिक व्यवस्थाएं कानून से चलती हैं। धर्म अच्छे इनसान बनाने का कार्य कर सकता है। तो यह कार्य सब धर्मों के लोग अपने-अपने धर्म के अंदर करें। एक-दूसरे से सीख भी लें तो कोई हर्ज नहीं, किंतु धर्मांतरण से अविश्वास फैला कर मनुष्य जाति का भला होने वाला नहीं है। अतः शासकीय व्यवस्था चलाने का कार्य सरकारों पर छोड़ दिया जाए, धर्म मानवतावादी स्तर को उन्नत करे…

आज के समाज में जब मनुष्यता को अनेक गंभीर खतरे पर्यावरण विध्वंस, विनाशकारी विकास मॉडल, हथियारों की होड़ और युद्ध आदि के रूप में चुनौती दे रहे हैं, ऐसे में वैश्विक स्तर पर बड़े पैमाने पर गंभीर सहयोग की जरूरत बढ़ती जा रही है। कोरोना जैसी समस्या ने इसकी जरूरत को और भी ज्यादा उजागर कर दिया है। ऐसे में देशों और समाजों में फूट डालने वाली प्रक्रियाओं को चिन्हित करके उन पर बेहतर सोच द्वारा विजय प्राप्त करना समय की जरूरत बन गई है। मध्य युग से लेकर आज तक यदि फूट और विनाश के मुख्य कारकों के बारे में सोचें तो अंतर्धार्मिक संघर्ष एक मुख्य कारक के रूप में उभरकर सामने आता है। विभिन्न धर्मों के बीच संघर्ष का कारण यह विश्वास है कि मेरा धर्म ही सबसे अच्छा है और इसी रास्ते पर चल कर मनुष्य का कल्याण हो सकता है और मुक्ति प्राप्त हो सकती है। थोड़ा तर्कपूर्ण तरीके से सोचें तो समझ में आ जाएगा कि यदि हम सच में मानव कल्याण करना चाहते हैं तो हम अपने धार्मिक विचारों को फैलाने के लिए हिंसा, आर्थिक लालच या झूठ का सहारा नहीं ले सकते, किंतु आज तक धर्म प्रचार के लिए छेड़ी गई बहुत सी  मुहिमें हिंसा, लूट और झूठ पर ही आधारित रही हैं क्योंकि यह विश्वास ही अपने आप में गलत है कि किसी दूसरे का धर्म परिवर्तन करके ही मानव कल्याण किया जा सकता है। यदि आपको मानव कल्याण के लिए काम करना है तो आपको किसी का धर्म पूछने की और उसे छोटा या गलत साबित करने की जरूरत ही क्या है?

इससे साबित होता है कि धर्म परिवर्तन करवाने वालों का उद्देश्य मानव कल्याण न होकर अपने धर्म की संख्या बढ़ाना मात्र है, जो असल में छिपे तौर पर राजनीतिक हथकंडा है, धर्म नहीं। इससे मानवता का भला नहीं हो सकता है। इस विषय में गांधी जी की राय बहुत तर्कपूर्ण लगती है। गांधी जी एक साक्षात्कार में कहते हैं कि किसी दूसरे द्वारा दूसरे का धर्मांतरण ईशनिंदा के समान है क्योंकि इसके लिए हम दूसरे के धर्म की निंदा करते हैं और ईश्वर कृपा पाने के योग्य नहीं मानते हैं। तो क्या ईश्वर कुछ धर्मों के प्रति पक्षपात करने वाला है? ईश्वर कभी पक्षपाती नहीं हो सकता। यंग इंडिया में 21-3-1929 को गांधी जी का एक साक्षात्कार छपा है। इसमें डा. जॉन मौट पूछते हैं कि क्या आप सब तरह के धर्म परिवर्तन के खिलाफ  हैं? गांधी जी ने कहा कि मैं एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति का धर्म परिवर्तन करवाने पर विश्वास नहीं करता, मेरा यह कभी प्रयास नहीं होगा कि मैं दूसरे के धर्म को घटिया साबित करूं, बल्कि मेरा प्रयास होगा कि वह अपने धर्म का बेहतर पालनकर्ता बन जाए। इसका अर्थ हुआ सभी धर्मों की सच्चाई पर विश्वास और उनके लिए सम्मान की भावना होना और सच्ची नम्रता होना, जिससे हम इस तथ्य को पहचान सकें कि ईश्वरीय या दिव्य प्रकाश सभी धर्मों को दिया गया है। किंतु इसे हाड़-मांस के त्रुटिपूर्ण शरीर रूपी माध्यम से दिया गया है। इसलिए उन सब में कुछ हद तक हाड़-मांस के माध्यम की कमियां बनी रहेंगी। एक अन्य साक्षात्कार में वह कहते हैं कि यदि हमें अपने धर्म में कुछ कमियां दिखाई देती हैं तो उन्हें दूर करना मेरा कर्त्तव्य होगा। बिना अपना धर्म छोड़े एक-दूसरे धर्म के अध्ययन बारे गांधी जी कहते हैं कि ‘मैं एक ईसाई के रूप में मीरा बहन का आदर करता हूं, किंतु मीरा बहन द्वारा श्रद्धापूर्वक गीता पढ़ने पर भी मुझे हैरानी नहीं होती, अन्य धर्मों को मानने वाले साथी भी हमारी प्रार्थना सभाओं में गंभीरता से भाग लेते हैं। विभिन्न धर्म एक ही आध्यात्म रूपी पेड़ की शाखाओं-पत्तियों की तरह हैं, जो यद्यपि अलग-अलग होने के बावजूद एक ही हैं। हमें उन सभी को एक नजर से देखना चाहिए और बराबरी का दर्जा देना चाहिए।’ हालांकि यदि कोई व्यक्ति अपनी अंतःचेतना से अपने अवरुद्ध आध्यात्मिक विकास की बेहतरी के लिए धर्मांतरण करता है, बिना किसी भय, लालच के तो उसे गांधी जी गलत नहीं मानते। इस पूरे प्रसंग में प्राप्त अंतःदृष्टि के अतिरिक्त एक बड़ा मामला जिसे सभी को मनोवैज्ञानिक धरातल पर समझने का प्रयास करना चाहिए कि धर्मांतरण का लक्षित वर्ग एक तरह के खतरे के एहसास का शिकार हो जाता है। इसके चलते वह  जवाबी कार्रवाई के तरीके ढूंढने लगता है और आपसी अविश्वास का बीज पड़ जाता है। अविश्वास दृष्टि को धुंधला और पक्षपाती बना देता है। यही अकारण संघर्षों और अशांति की नींव का काम करता है। इससे बचना चाहिए और धर्मांतरण के संगठित प्रयासों को शांति विरोधी मान कर त्याज्य माना जाना चाहिए। एक और बात, यदि धर्म का लक्ष्य मानव के अधिकतम  कल्याण को संभव बनाना है तो भी धर्मांतरण निष्प्रभावी सिद्ध होता है क्योंकि किसी भी धर्म को मानने वाले समाजों को देख लें, हर तरह के अपराध और अमानवीय कृत्य होते दिख जाएंगे। उनमें कमी-पेशी जहां दिखती है, वह कानून के डर से होती है। केवल धर्म के बूते चलने वाले समाज कहां हैं? यदि होते तो शासन व्यवस्था की जरूरत ही नहीं होती। जहां धर्मों ने शासन व्यवस्था को संभाल लिया है, वहां भी धार्मिक उपदेशों से नहीं बल्कि ज्यादा कड़े कानूनों से ही समाज को चलाना पड़ता है। इसका अर्थ हुआ कि सामाजिक व्यवस्थाएं कानून से चलती हैं। धर्म अच्छे इनसान बनाने का कार्य कर सकता है। तो यह कार्य सब धर्मों के लोग अपने-अपने धर्म के अंदर करें। एक-दूसरे से सीख भी लें तो कोई हर्ज नहीं, किंतु धर्मांतरण से अविश्वास फैला कर मनुष्य जाति का भला होने वाला नहीं है। अतः सामाजिक-शासकीय व्यवस्थाओं को चलाने का कार्य सरकारों पर छोड़ दिया जाए। धर्म अपने-अपने लोगों के व्यक्तिगत मानवतावादी स्तर को उन्नत करने का कार्य करे। धर्मों में एक रचनात्मक प्रतिस्पर्धा हो कि कौन अपने लोगों को ज्यादा मानवतावादी बना पाता है। धर्मनिरपेक्षता का असली अर्थ भी तभी हासिल होगा।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App