साहित्य का उद्देश्य और पाठक की अवस्थिति

By: May 24th, 2020 12:04 am

बद्री सिंह भाटिया, मो.-9805199422

हिमाचल प्रदेश में साहित्य का उद्देश्य सिकुड़ रहा है। यह सवाल क्यों? क्या साहित्य अपने दायित्वों का निर्वहन नहीं कर पा रहा? यानी जो लिखा जाना चाहिए, नहीं लिखा जा रहा या जहां तक उसे पहुंचना चाहिए, वहां तक नहीं पहुंच पा रहा। निःसंदेह यह हो सकता है। इसका सबसे बड़ा कारण है पाठक और श्रोता का शब्द से दूर होना। शब्द की ताकत तभी पता चल सकती है जब उसके माकूल पाठक हों। साहित्य का उद्देश्य लोक अनुरंजन के साथ सूचना अथवा फीडबैक देना है। इसलिए साहित्य की रचना रोजमर्रा के जनजीवन और तत्संबंधी अवस्थितियों, विसंगतियों, समस्याओं के आवर्तन और परिणति को परिलक्षित कर होती है।

साहित्य में विचारधाराओं की भी भूमिका रही है। प्रदेश के अस्तित्व में आने के बाद यहां के रचनाकारों ने सामाजिक उठान के साथ अपने दायित्वों के दृष्टिगत साहित्य रचना आरंभ की। जिस प्रकार समाज बदलता रहा अथवा जो परिवर्तन आते गए, उन पर कलम चलती रही। आज प्रदेश में साहित्य की सिकुड़न में यह महसूस किया जा रहा है कि साहित्य अपने दायित्वों को न निभा बस, रचना के लिए रचना कर रहा है जो न कोई वैचारिकता रखता है और न ही समाज में किसी तरह की हलचल पैदा कर रहा है। प्रदेश में आज साहित्य लेखन कुछ एक के लिए तो मजाक बन कर रह गया है। वर्तमान संदर्भों में साहित्य की विभिन्न विधाओं के अंतर्गत यह माना जा सकता है कि ऐसी पुस्तकें अथवा लेख यहां नहीं आए जो किसी प्रकार के वैयक्तिक संदर्भों को उजागर कर पाठकों के दिलों और दिमागों में एक खलल सी पैदा करते। रचनात्मक साहित्य में हिमाचल प्रदेश के साहित्यकारों ने खुले रूप से लेखन किया है। वे किसी डाकबंगले में न बैठकर प्रदेश के भीतरी भागों में गए हैं। वहां की संस्कृति, लोक व्यवहार और विसंगतियों, समस्याओं को समझा है और तदनुरूप साहित्य की रचना की है। वह साहित्य कहानी, कविता, संस्मरण, यात्रा वृत्तांत, आलोचना, समीक्षा, इतिहास, संस्कृति अथवा अन्य प्रकार से सामने आया है।

सांस्कृतिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक लेखन में भी बहुत से रचनकारों ने विपुल साहित्य की रचना की है। बहुत से शोध प्रदेश और बाहर के विश्वविद्यालयों में हो रहे हैं जिनमें से अधिकांश पुस्तकाकार में उपलब्ध हैं। हम कह सकते हैं कि राहुल सांकृत्यायन की परंपरा अभी भी विद्यमान है। रचनात्मक साहित्य जब आंदोलनों से गुजर रहा था, यहां से भी एक आवाज उठी थी और साहित्य की आम धारा में खटक पैदा कर अपने काल के अनुसार बहती रही। रचनात्मक साहित्य दशकों में बंटा रहा है। आठवें दशक के बाद हिमाचल प्रदेश में बहुत बड़ा उठान आया है। इसका श्रेय यहां हुए शिक्षा के विस्तार और प्रसार को जाता है। अकादमी और संस्कृति विभाग के इतर कुछ साहित्य संस्थाओं ने जो आयोजन किए हैं, उससे एक क्षेत्र के साहित्यकार दूसरे क्षेत्रों के साहित्यकारों के साथ मिलकर विचारों के आदान-प्रदान में सक्षम हुए हैं। साहित्य का एक पक्ष विचारधारा के तहत लेखन का भी रहा है। जनवादी, प्रगतिवादी विचारधाराएं सदैव अपनी भूमिका निभाती रही हैं।

ये समाज की विसंगतियों को उजागर कर समाज का चेहरा उसे दिखाने में सक्षम रहकर अपने दायित्वों का निर्वहन करती रही हैं। हां, यह कहा जा सकता है कि यहां अन्य प्रदेशों के समकक्ष लेखकों की फसल अधिक नहीं है। हिमाचल प्रदेश में अखबारों के अलावा साहित्य की पत्रिकाएं केवल सरकारी क्षेत्र में ही निकलती हैं। कमोबेश कुछ पत्रिकाएं निजी प्रयासों एवं सीमित साधनों के साथ निकलीं और निकल भी रही हैं, मगर वे किसी घराने की नहीं हैं। इसलिए उनकी पहुंच भी सीमित ही है। साहित्य की व्यापकता में इस प्रदेश में आकाशवाणी और दूरदर्शन का भी अहम स्थान रहा है। इनमें आकाशवाणी की पहुंच पहले बहुत रही है। दूरदर्शन अभी भी सीमित है। समाचारपत्रों में कतिपय ही ऐसे हैं जो साहित्य के प्रचार-प्रसार में अहम भूमिका निभाते हैं। साहित्य के उद्देश्य की सिकुडऩ के लिए हमारी पठन-पाठन की क्षमताएं और आदान-प्रदान के अभाव ही जिम्मेवार हैं। हम जो पढ़ते हैं, उस पर कितनी बात करते हैं? उस पर यह भी कि प्रशंसा सुनना ही मकसद नहीं होना चाहिए। एक बात और, फेसबुक या किसी ग्रुप में रचना डालकर लाइक्स बटोरना भी साहित्य का उद्देश्य नहीं है। इसके साथ साहित्य के प्रचार-प्रसार में अकादमिक प्रयासों के अलावा हमारी शिक्षण संस्थाएं अहम भूमिका निभाती हैं। शनिवार की साप्ताहिक सभाओं और कालेजों, विश्वविद्यालयों में साहित्य की अनुपस्थिति को भी नकारा नहीं जा सकता। फिर भी हिमाचल प्रदेश में रचित साहित्य ने देश में ही नहीं, विदेशों में भी अपना स्थान बनाया है। यहां के रचनाकारों की उपस्थिति विदेशों में श्लाघनीय है।


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