सुख और दुख

By: May 9th, 2020 12:15 am

छोटे-छोटे जीवन के दुखों से प्रयोग शुरू करना पड़ेगा। जीवन में रोज छोटे दुख आते हैं, रोज प्रतिपल वे खड़े हैं और दुख ही क्यों सुख से भी प्रयोग करना पड़ेगा, क्योंकि दुख में जागना उतना कठिन नहीं है, जितना सुख में जागना कठिन है। सुख में दूर होना और भी कठिन है, क्योंकि सुख में हम पास होना चाहते हैं और पास होना चाहते हैं, दुख में तो हम दूर होना ही चाहते हैं। दुख में भी जागने के प्रयोग करने पड़ेंगे और सुख में भी जागने के प्रयोग करने पड़ेंगे और इन प्रयोगों में जो उतरता है, वह कई बार स्वेच्छा से दुख वरण करके भी प्रयोग कर सकता है। सारी तपश्चर्या का मूल रहस्य इतना ही है। वह स्वेच्छा से दुख को वरण करके किया गया प्रयोग है। जैसे एक आदमी उपवास कर रहा है, भूखा खड़ा है। वह भूख का प्रयोग कर रहा है। आमतौर से जो लोग उपवास करते हैं उन्हें ख्याल भी नहीं होता कि क्या कर रहे हैं वे। वे सिर्फ  भूखे हैं और कल भोजन करना है, उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, लेकिन उपवास का जो मौलिक प्रयोग है, वह यह है कि भूख है और भूख मुझसे दूर है, इसका अनुभव करना है, मैं भूखा नहीं हूं। तो भूख को अपने हाथ से पैदा करके यह जानने की भीतर चेष्टा चल रही है कि भूख वहां है, राम को भूख लगी है। उपवास का बड़ा गहरा अर्थ हो जाता है। उसका अर्थ सिर्फ  भूखा रहना नहीं है। अनशन और उपवास का यही फर्क है। उपवास का मतलब है आवा, निकट और निकट। अपने पास रहना और शरीर से दूर। तब फिर यह भी हो सकता है कि एक आदमी भोजन किए हुए भी उपवास में हो क्योंकि अगर भोजन करते हुए भी वह जानता हो कि भोजन दूर हो रहा है और मैं कहीं और हूं तो उपवास है और यह भी हो सकता है कि एक आदमी भोजन न किए हुए भी उपवास न हो क्योंकि वह जानता हो कि मैं भूखा हूं।

मैं भूखा मरा जा रहा हूं। उपवास तो एक मनोवैज्ञानिक बोध है भूख से भिन्नता का। तो ऐसे और दुख भी पैदा किए जा सकते हैं स्वेच्छा से भी, लेकिन स्वेच्छा से पैदा किए गए दुख बहुत गहरा प्रयोग हैं। एक आदमी कांटे पर भी लेट सकता है सिर्फ  यह जानने के लिए कि कांटे मुझे नहीं चुभ रहे हैं, कांटे कहीं और छिदे हुए हैं और मैं कहीं और हूं। मैं कहीं और हूं इस अनुभव के लिए दुख आमंत्रित भी किया जा सकता है, लेकिन अभी तो अन आमंत्रित दुख ही काफी हैं। उन्हें और आमंत्रित करते जाने की कोई जरूरत नहीं है। दुख ऐसे ही चले आते हैं। आए हुए दुख में भी यदि ये बोध रखा जा सके कि मैं भिन्न हूं, मैं दूर हूं तो दुख साधना बन जाता है। सुख से अपने को दूर अनुभव करना बहुत दुख है क्योंकि वहां तो मन होता है कि डूब जाओ पूरे और भूल जाओ कि मैं अलग हूं। सुख डुबाता है, दुख तो वैसे ही तोड़ता है और अलग करता है। ध्यान रहे, दुख को बुलाना एक बहुत महत्त्वपूर्ण प्रयोग है क्योंकि सुख को सब बुलाना चाहते हैं, दुख को कोई भी बुलाना नहीं चाहता।

यह जो एक जन्म है जागे हुए व्यक्ति का, ऐसे ही व्यक्तियों को हम अवतार, तीर्थंकर, बुद्ध, जीसस और कृष्ण कहते रहे हैं। ऐसे लोगों को हम आदमी से अलग गिनते रहे हैं। उसका इतना ही कारण है कि वे निश्चित हमसे बहुत अलग हैं और यह उनकी अंतिम यात्रा है इस पृथ्वी पर। इसलिए कुछ उन में है, जो हममें नहीं हैं और कुछ उनमें है, जो हम तक पहुंचाने की वे अथक चेष्टा करते रहेंगे। फर्क उनमें और हममें इतना ही है कि उनका यह जन्म और पिछली मृत्यु जाग्रत हुई है इसलिए यह पूरा जीवन जागा हुआ है।


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