उसूल बनाम हुसूल: अजय पाराशर, लेखक, धर्मशाला से हैं

By: Jun 16th, 2020 12:06 am

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अजय पाराशर

लेखक, धर्मशाला से हैं

अपने उसूलों के पक्के पंडित जॉन अली सदा पुरसुकून से दिखते हैं। उन्होंने बचपन से ही अपने लिए लक्ष्मण रेखा निर्धारित कर ली थी। उन्हें सिखाया गया था कि टिड्डी दल की तरह कुछ ही समय में कई गुणा बढ़ने वाली ़ख्वाहिशों पर अगर विवेक का छिड़काव न किया जाए तो आदमी के लिए नरक के द्वार खुलने में समय नहीं लगता। भले ही वर्तमान में यह रास्ता स्वर्ग से होकर गुज़रता दीखता है, लेकिन अंत में ़खत्म घोर नरक में जाकर होता है। उन्होंने पहले हरी, गुलाबी और अब नारंगी रंग की माया से बराबर से़फ सोशल डिस्टेंसिंग बनाए रखी है। रंग-बिरंगे नोटों की गंध से बचने के लिए वह विवेक के मास्क और सेनेटाइज़र का लगातार इस्तेमाल करते रहते हैं। भले ही वह कमाऊ महकमे में अ़फसर के पद पर तैनात हैं, लेकिन आज भी उनके घर में वही दो दशक पुराना सो़फा मौजूद है, जो उन्होंने शादी के बाद अपना घर सजाने के लिए अपनी बचत से ़खरीदा था। जब भी सो़फे का कपड़ा पुराना पड़ जाता है, उसे बदलवा लेते हैं। घर के बा़की सामान का भी यही हाल है। अपने पुश्तैनी मकान में रहते हुए उन्होंने कभी सरकारी घर लेने की कोशिश नहीं की। लेकिन यह उनके उसूलों का हश्र ही था कि उन्हें कभी फील्ड पोस्टिंग नसीब न हुई। एक मर्तबा कहीं फील्ड में गए भी तो पहले ही दिन नाके से फिर मुख्यालय के लिए वैसे ही पैक करवा दिए गए जैसे कोई ऩखरीली पे्रमिका मनपसंद चाट न मिलने पर अपने सामने रखी प्लेट को प्रेमी के सामने हि़कारत से डस्टबिन में डाल देती है। अब उन्हें हर बार ऐसी सीट एलॉट की जाती है जहां नोटों का रंग-बिरंगा प्रकाश पास भी नहीं फटकता। उनके बरअक्स उनके जिन समकक्ष या मातहतों ने अपने करियर की शुरुआत से ही शीशे के घरों में रहना शुरू कर दिया था, वे यह याद नहीं रखते कि केवल एक पत्थर उनके घरों का नक्शा बिगाड़ने के लिए का़फी है। इनकी नज़र केवल हासिल पर होती है। भले ही कई बार उनके घरों के शीशे टूट भी चुके हैं। लेकिन ‘छूटती नहीं है मुंह से यह का़िफर लगी हुई’, की तज़र् पर ऐसे लोगों का कई मर्तबा सस्पेंड और बहाल होने का सिलसिला बदस्तूर जारी रहता है। ये लोग मौ़के के हिसाब से ताउम्र श्वानों की तरह दुलारते और लतियाए जाते हैं। लेकिन पहली ऐसी दो श्रेणियों के अलावा एक तीसरी श्रेणी भी है, जो अमरबेल की तरह शाश्वत है। यह श्रेणी उसूलों नहीं ज़माने के उस्लूबों अर्थात् हवा का रु़ख देखकर चलती है। ऐसी श्रेणी सत्युग से लेकर आज तक निर्बाध चली आ रही है। इन्हें सभी पसंद करते हैं। सत्ता चाहे किसी की भी हो, ये लोग हमेशा दरबार में सजे रहते हैं। हर निर्णय में इनका बराबर द़खल रहता है। सभी को ये लोग अपने से लगते हैं। इनके घर शीशे के होते हैं, लेकिन उन पर कोई पत्थर नहीं मारता। ऐसे लोग पत्थर मारने वालों को भी पटा कर रखते हैं। उन्हें नौकरी में सदा प्राइम पोस्टिंग ही मिलती है; क्योंकि उन्हें पता होता है कि किस देवता के सामने, किस जगह और किस व़क्त कितना चढ़ाना है। ऐसे लोग, हर युग में सुख से जीते हैं क्योंकि वे दूसरों को सुख से जीने देते हैं और दुनिया में सफलता की नई इबारतें लिखते हैं।


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