छिछोरों के बीच छिछोरापन, अजय पाराशर, लेखक, धर्मशाला से हैं

By: Jun 23rd, 2020 12:06 am

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अजय पाराशर

लेखक, धर्मशाला से हैं

भले ही ओशो लाख कहते रहें कि हमें जो शरीर मिला है हमें उसके प्रति सदैव कृतज्ञ होना चाहिए। लेकिन हमें न ़खुद से प्रेम है और न ईश्वर से। दुनिया को छिछोरा बनाने के बाद उसे अपने छिछोरेपन से जीतने की कोशिश करते हैं। लेकिन सामूहिक छिछोरेपन के आगे वैयक्तिक छिछोरापन बौना हो जाता है। ताउम्र स्वांग रचते हैं और अंततः मसखरे बन निकल पड़ते हैं। जिस तरह राजनेता ढोंग करते हैं जनता और देश से प्रेम और कृतज्ञता का; वैसे ही हम दिखावा करते हैं खुद से और खुदा से प्यार और आभार का। भैंस की तरह जुगाली करते हुए न जाने किस दुनिया में खोए हुए व़क्त गुज़ारते हैं। जब तक दुनिया में हैं हमारा व्यवहार ऐसा होता है मानो सांसें उधार की हों। कहते हैं आदमी का व्यवहार आज से नहीं सृष्टि के आरंभ से ही ऐसा है। बस परिस्थितियों के हिसाब से गिरगिट की तरह रंग बदलता है। अगर शक्ति या सत्ता नहीं होगी तो दीन-हीन बना रहेगा और जैसे ही सत्ता मिली, वैसे ही रंग बदल कर दूसरों पर हावी होने की कोशिश करता है। अगर ऐसा नहीं होता तो आधुनिक कहावत क्यों गढ़ी जाती, ‘छिछोरे तेरे कितने नाम, परसू, परसा, परस राम।’ प्रकृति सामूहिक मन पर कितना असर डालती है; इसका एहसास हमें तभी हो सकता है जब हम संवेदनशील हों। लेकिन जब मन पर गैंडे की खाल की तरह छिछोरेपन की परत पड़ी हो तब चाहे कोरोना संक्रमण हो या दुश्मन से युद्ध जैसे हालात; हमें केवल छिछोरापन ही सूझता है। नहीं तो विश्व के सबसे दबंग देश में गोरी टांग आज भी काली गरदन पर हावी क्यों होती? भक्त खुंदक में ‘दुश्मन के पहरुए’ का तमगा किसी और के गले क्यों टांगते? बिना सोचे-समझे स्वघोषित पहरुआ क्यों बोलता कि चोर तो हमारे खेत में आया ही नहीं था। ‘छिछोरे’ ़िफल्म का ची़फ छिछोरा अपनी  ़कुव्वत और छिछोरेपन से अपने फिसड्डी हॉस्टल को ऊंचाई पर ले जाने और ़खुदकुशी की कोशिश करने वाले बेटे को वापस ज़िंदगी की पटरी पर लाने के बावजूद असल ज़िंदगी में खुदकुशी क्यों करता? सा़फ है कि हम वहीं तक देखते हैं जहां तक नज़र जाती है। लेकिन जो नज़रों के पार देख सकता है वह कभी हार नहीं मानता। सुख-दुःख तो रात-दिन की तरह ज़िंदगी में आते-जाते रहते हैं। गिनती के ऐसे ही चंद  लोगों से दुनिया चलती है। नाम ‘सुशांत’ होने से कोई श़ख्स सचमुच सुशांत तो नहीं हो जाता। अगर ऐसा होता तो अमीर चंद हमेशा अमीर ही पैदा होता। नाम तो गहनों की तरह गढ़े जाते हैं। कभी मां-बाप उत्साह में बच्चों के नाम रखते हैं तो कभी राजनीति के लिए नाम रखे या बदले जाते हैं। लेकिन छिछोरेपन में जीतता वही है जो ज़ाती तौर पर भी अव्वल दरजे का छिछोरा होने के साथ छिछोरेपन को सामूहिकता में जीने का हुनर जानता हो। अगर ऐसा नहीं होता तो बॉलीवुड के असली छिछोरे ‘सुशांत’ जैसे ़िफल्मी छिछोरे को खुदकुशी करने पर मजबूर करने की बजाय खुद आत्महत्या कर लेते। इससे साबित होता है कि छिछोरेपन में न्यूटन का तीसरा नियम पूरी तरह लागू नहीं होता। छिछोरेपन में हर क्रिया की प्रतिक्रिया तभी मुमकिन है, जब दूसरा छिछोरा पहले छिछोरे से ज़्यादा बड़ा छिछोरा हो। भले ही वैयक्तिक छिछोरापन व़क्त के सामने हार जाए लेकिन सामूहिक छिछोरेपन के आगे व़क्त भी हार जाता है। छिछोरापन सदियों से अमरबेल की तरह फल-फूल रहा है।


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