पर्यावरण कानून को कमजोर न करें: कुलभूषण उपमन्यु, अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान

By: Jun 4th, 2020 12:06 am

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान

वर्तमान प्रारूप में बहुत सी परियोजनाओं को बी-2 श्रेणी में रख कर पर्यावरण प्रभाव आकलन की कई प्रक्रियाओं से मुक्त कर दिया है। इस श्रेणी की परियोजनाओं को सीधे नियामक प्राधिकरण द्वारा देखा जाएगा। राज्य विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति को भी मामला भेजा नहीं जाएगा। मुद्दों को निर्धारित करने, जनसुनवाई से लोगों की आपत्तियों को दर्ज कराने की व्यवस्था को भी कमजोर किया जा रहा है। जनसुनवाई की पूर्व सूचना देने की अवधि 30 दिन से घटा कर 20 दिन करने का प्रस्ताव है। परियोजना निर्माताओं ने यदि पर्यावरण स्वीकृति प्राप्त करने से पहले ही काम आरंभ कर दिया तो उन्हें जुर्माना देकर काम जारी रखने की सुविधा दी जा रही है…

जब से औद्योगिक क्रांति के बाद प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन की सामर्थ्य आदमी के हाथ में आई है, तब से प्रकृति के साथ मनुष्य का व्यवहार गैरजिम्मेदारी की सीमाएं लांघता ही जा रहा है। इसके पीछे यह अज्ञान और अवैज्ञानिक दृष्टिकोण काम कर रहा था कि प्रकृति का भंडार असीमित है और उसके  असीमित  दोहन में कुछ भी गलत नहीं है…और प्रकृति को पहुंची किसी भी क्षति को तकनीक की मदद से ठीक किया जा सकता है। इस अहंकार के चलते वन, खदान, नदियां, समुद्र, सब नष्ट और प्रदूषित होते चले गए। भारत में इस प्रक्रिया का आरंभ अंग्रेजी शासन में वन के व्यापारिक दोहन से हुआ। जब अत्यधिक दोहन के बाद यह समझ में आया कि इससे तो वन संसाधन के नष्ट होने का खतरा पैदा हो गया है, तब जर्मन वन वैज्ञानिकों के माध्यम से वानिकी विज्ञान पढ़ाने और वन रोपण की प्रक्रिया आरंभ हुई। आजादी के बाद सर्वप्रथम 1970 के दशक में नदी घाटी परियोजनाओं के संदर्भ में इन परियोजनाओं के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव की ओर ध्यान गया और उसके आकलन की शुरुआत हुई। 1994 में पर्यावरण प्रभाव आकलन के लिए कानून बना कर इसे 32 प्रकार की परियोजनाओं के लिए आवश्यक ठहराया गया। उन प्रावधानों में 2006 में पुनः संशोधन करके पर्यावरण प्रभाव आकलन के बाद ही किसी परियोजना के निर्माण की हरी झंडी देने की व्यवस्था हुई और उसके लिए विस्तृत प्रक्रिया निर्धारित की गई, जो आज तक लागू है। वर्तमान प्रक्रिया के अनुसार नया प्रोजेक्ट लगाने या किसी परियोजना का विस्तार करने के लिए पहले पर्यावरण स्वीकृति लेनी पड़ती है। परियोजनाओं को दो श्रेणियों में बांटा गया है। ‘ए’ श्रेणी की परियोजनाओं के लिए स्वीकृति वन-पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय केंद्र सरकार द्वारा पर्यावरण प्रभाव आकलन की पूरी प्रक्रिया के बाद दी जाती है और ‘बी’ श्रेणी की परियोजनाओं के लिए स्वीकृति राज्य सरकार के स्तर पर तदर्थ स्थापित विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति के माध्यम से दी जाती है। पर्यावरण प्रभाव आकलन चार चरणों में होता है।

प्रथम चरण में जांच की जाती है और पर्यावरण प्रभाव आकलन के प्रावधानों के अंतर्गत आने वाली और न आने वाली परियोजनाओं को अलग किया जाता है। दूसरे चरण में विशेषज्ञ समिति द्वारा मुद्दों और कार्यक्षेत्र का निर्धारण किया जाता है। तीसरे चरण में जनसुनवाई करके परियोजना प्रभावित क्षेत्रों के लोगों की चिंताएं दर्ज की जाती हैं। जनसुनवाई के लिए 30 दिन पहले लोगों को उचित माध्यमों से सूचित करने का प्रावधान है। चौथे चरण में पर्यावरण प्रभाव आकलन रपट और जनसुनवाई में उठाए गए मामलों की जांच की जाती है और विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति द्वारा परियोजना को स्वीकृति या रद्द करने की अनुशंसा की जाती है। हालांकि वर्तमान प्रावधानों में भी जनसुनवाई की व्यवस्था दिखावटी ज्यादा है। इसे गंभीरता से नहीं लिया जाता और पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट तैयार करने की जिम्मेदारी परियोजना निर्माणकर्ता पर डाली गई है। जाहिर है परियोजना निर्माणकर्ता पक्ष, निहित स्वार्थ लिए होगा, इसलिए वह परियोजना के लाभ बढ़ा-चढ़ा कर दिखाएगा और प्रतिकूल प्रभावों को घटा कर दिखाएगा। जरूरत तो इस व्यवस्था को और मजबूत करने की थी। आज जब जलवायु परिवर्तन एक सच्चाई बन कर उभरा है और यह सिद्ध हो चुका है कि बड़ी परियोजनाओं के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों के कारण ही जलवायु परिवर्तन की समस्या खड़ी हुई है, यह और भी जरूरी हो जाता है कि पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) कार्य को और भी ज्यादा गंभीरता से लिया जाए और उसके हर चरण की जांच की जाए। परंतु इसके बजाय पर्यावरण प्रभाव आकलन प्रक्रिया को कमजोर करने के प्रयास हो रहे हैं।

वर्तमान प्रारूप में बहुत सी परियोजनाओं को बी-दो श्रेणी में रख कर पर्यावरण प्रभाव आकलन की कई प्रक्रियाओं से मुक्त कर दिया है। इस श्रेणी की परियोजनाओं को सीधे नियामक प्राधिकरण द्वारा देखा जाएगा। राज्य विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति को भी मामला भेजा नहीं जाएगा। मुद्दों को निर्धारित करने, जनसुनवाई से लोगों की आपत्तियों को दर्ज कराने की व्यवस्था को भी कमजोर किया जा रहा है। जनसुनवाई की पूर्व सूचना देने की अवधि 30 दिन से घटा कर 20 दिन करने का प्रस्ताव है। परियोजना निर्माताओं ने यदि पर्यावरण स्वीकृति प्राप्त करने से पहले ही काम आरंभ कर दिया तो उन्हें जुर्माना देकर काम जारी रखने की सुविधा दी जा रही है। इससे तो पर्यावरण प्रभाव आकलन व्यवस्था का पूरा तर्क ही निरस्त हो जाएगा और परियोजना निर्माता मनमानी करने के लिए प्रोत्साहित होंगे। ईज ऑफ  डूइंग बिजनेस के लिए यह निवेश को आकर्षित करने के नाम पर किया जा रहा है। इसके लिए अपने तर्क हो सकते हैं, परंतु जलवायु परिवर्तन की सच्चाई आपके तर्कों को सुनने वाली नहीं है। बाढ़-सूखे का बढ़ता क्रम, मौसम के अतिवादी स्वरूप के बढ़ते जाने का क्रम, घटते ग्लेशियर, जैव-विविधता के विनाश का क्रम आदि अपना व्यवहार ईआईए कानून को पढ़ कर निर्धारित करने वाले नहीं हैं। इसलिए बिजनेस को बढ़ाना तो अच्छा है, परंतु पर्यावरण के विनाश की कीमत पर नहीं। विकास और निवेश को पर्यावरण-मित्र बनाना होगा। यह सारे विश्व की आज जरूरत है। हिमालय जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में तो यह और भी जरूरी हो जाता है। ताजा अध्ययनों  से यह बात सामने आई है कि हिमालय में धरती की सतह का तापमान बढ़ने की दर वैश्विक औसत से दोगुणा है। इसलिए हिमालय क्षेत्र में पर्यावरण कानूनों को ढीला करना और भी चिंता का विषय है।


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