पुलिस पर अविश्वास के कानूनी पहलू: राजेंद्र मोहन शर्मा, सेवानिवृत्त डीआईजी

By: Jun 17th, 2020 12:06 am

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राजेंद्र मोहन शर्मा

सेवानिवृत्त डीआईजी

ऐसी भ्रांतियां किसी सीमा तक उचित भी हैं, मगर इसका दूसरा पहलू, जो कि कानूनी प्रक्रिया से संबंधित है तथा जिसके संबंध में लोगों को जानकारी नहीं है, भी काफी सीमा तक उत्तरदायी है और इसका खामियाजा पुलिस को ही भुगतना पड़ता है। भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता के अनुसार अपराधों को संज्ञा व असंज्ञा श्रेणियों में बांटा गया है जिसका आम लोगों को ज्ञान नहीं है। कुछ ऐसे अपराध हैं जिनमें पुलिस एफआईआर दर्ज नहीं कर सकती तथा रजिस्टर में केवल उसकी रिपोर्ट लिख दी जाती है क्योंकि उस अपराध में पुलिस कोई भी कार्रवाई न करने के लिए बाध्य होती है। वह केवल मजिस्ट्रेट के आदेशानुसार ही कार्रवाई कर सकती है। इसका वर्णन सीआरपीसी की धारा 155 में किया गया है…

पुलिस की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि विगत काल में दमनकारी तथा संदेहास्पद रही है। एक बार जिन तौर-तरीकों को अपना लिया जाता है, उनको छोड़ना कठिन व दुष्कर हो ही जाता है। पुलिस का दमनकारी दुर्व्यवहार जनता के संबंधों में खटास पैदा करता रहा है। इसके साथ-साथ पुलिस के कार्यक्षेत्र में अत्यधिक वृद्धि का होना तथा वांछित सही सुविधाओं का न होना भी किसी भी व्यक्ति के सामान्य व्यवहार को विचलित कर देता है तथा इन सभी कारणों से पुलिस को हर तरफ  से अविश्वास और संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। जब पुलिस व्यवस्था का स्वरूप समाज के अनुरूप नहीं होता, तब समाज व पुलिस में अनेक प्रकार की भ्रांतियां उत्पन्न हो जाया करती हैं। समाज को पुलिस की निष्पक्षता, न्यायप्रियता और कानूनी प्रशासन के प्रति विश्वास नहीं रहता। आमतौर पर पुलिस के प्रति लोग कुछ इस तरह से कहते हैं, कि पुलिस प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज नहीं करती, तथ्यों को तरोड़- मरोड़ कर लिखती है, गवाहों के असल बयान न लिख कर मनमाने ढंग से अरोपियों के पक्ष में लिख लिए जाते हैं तथा इसी तरह मुकदमों को काफी लंबे समय तक लटकाए रखते हैं और घटिया व पक्षपाती तफ्तीश के कारण अपराधियों को सजा नहीं मिल पाती। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार वर्तमान में जेलों में रखे गए कुल 4.33 लाख अपराधियों का 67 प्रतिशत भाग उन अपराधियों का है जिन्हें अभी सजा नहीं सुनाई गई है तथा संभव है कि इनमें बहुत से व्यक्ति बेकसूर ही पाए जाएंगे तथा उन्हें अकारण ही अपने जीवन का महत्त्वपूर्ण काल जेलों की काल कोठरी में व्यतीत करना पड़ेगा। तभी तो कहा जाता है कि देरी से मिला न्याय तो अन्याय के बराबर ही माना जाता है। मगर इस देरी के लिए पुलिस को ही जिम्मेदार ठहराना न्यायोचित नहीं है। ऐसी भ्रांतियां किसी सीमा तक उचित भी हैं, मगर इसका दूसरा पहलू, जो कि कानूनी प्रक्रिया से संबंधित है तथा जिसके संबंध में लोगों को जानकारी नहीं है, भी काफी सीमा तक उत्तरदायी है और इसका खामियाजा पुलिस को ही भुगतना पड़ता है। भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता के अनुसार अपराधों को संज्ञा व असंज्ञा श्रेणियों में बांटा गया है जिसका आम लोगों को ज्ञान नहीं है। कुछ ऐसे अपराध हैं जिनमें पुलिस एफआईआर दर्ज नहीं कर सकती तथा रजिस्टर में केवल उसकी रिपोर्ट लिख दी जाती है क्योंकि उस अपराध में पुलिस कोई भी कार्रवाई न करने के लिए बाध्य होती है। वह केवल मजिस्ट्रेट के आदेशानुसार ही कार्रवाई कर सकती है। इसका वर्णन सीआरपीसी की धारा 155 में दिया गया है और यह अंग्रेजी शासन के समय से चला आ रहा है। इसी तरह किसी भी अपराध के अन्वेषण में पुलिस किसी भी गवाह को उसके द्वारा दिए गए बयान पर हस्ताक्षर नहीं करवा सकती। ऐसे में प्रत्येक गवाह के मन में पुलिस की कार्यप्रणाली पर संदेह होना स्वाभाविक हो जाता है। वर्ष 1987 में टाडा एक्ट बनाया गया तथा इसमें पुलिस अधीक्षक रैंक के अधिकारी के सामने दिया गया गवाह का बयान न्यायालय में माना गया तथा इस अधिकार के कारण बहुत से आतंकवादी संबंधी मुकदमों की जांच न केवल जल्दी होने लगी, अपितु अपराधियों को सजा का डर भी सताने लगा। मगर हमारे राजनीतिज्ञों को पुलिस को  दिया गया यह अधिकार अच्छा नहीं लगा तथा अंततः इस एक्ट को वर्ष 2004 में रद कर दिया गया। बात यहीं समाप्त नहीं होती, साक्ष्य अधिनियम 1972 जो कि अब भी बिना किसी विशेष संशोधन से कार्यान्वित है, की धारा 25 के अंतर्गत अपराधी द्वारा अपना माना गया अपराध, पुलिस आफिसर के सामने मान्य नहीं है, जबकि आम जनता यह सोचती है कि पुलिस जानबूझ कर अपराधियों को अपना बयान बदलने के लिए दुष्प्रेरित करती है या फिर उनके साथ मिलीभगत करके मुकदमों को कमजोर बना देती है। इसके बाद इसी अधिनियम की धारा 32 (1) के अंतर्गत मरते हुए व्यक्ति का बयान न्यायालय में मान्य माना जाता है तथा उसके दिए गए बयान पर आरोपी को हत्या का अपराधी सिद्ध कर दिया जा सकता है। मगर यह अधिकार पुलिस अन्वेषण अधिकारी के लिए केवल नगण्य स्थिति में प्राप्त है तथा उस पर भी प्रतिपक्ष द्वारा कई संदेहजनक प्रश्न उत्पन्न कर दिए जाते हैं। तनिक सोचो एक ऐसा व्यक्ति जो किसी अकेली जगह पर अपना दम तोड़ रहा है तथा जहां पर किसी मजिस्ट्रेट या डाक्टर इत्यादि को उसका बयान लिखने हेतु उपस्थित नहीं किया जा सकता तथा ऐसे में पुलिस को ही उस मरते हुए व्यक्ति का बयान लिखना होता है, मगर इस पर भी प्रतिपक्ष द्वारा संदेह प्रकट कर दिया जाता है तथा मुल्जिम सजा से मुक्त हो जाता है। जब पुलिस अपनी जांच पूरी कर लेती है तब धारा 173 (2) के अंतर्गत अपनी अंतिम रिपोर्ट बना कर उसे उसे न्यायालय में पेश करती है। अब पुलिस को एक और कसौटी से गुजरना होता है, जब अभियोजन पक्ष जिसने सरकार की तरफ से पुलिस द्वारा बनाए गए केस को न्यायालय में प्रस्तुत करना होता है तथा ट्रायल में पुलिस द्वारा जुटाए गए साक्ष्यों को न्यायालय में सिद्ध करना होता है। गौरतलब है कि चालान को न्यायालय में पेश करने से पहले इसकी अभियोजन विभाग द्वारा जांच की जाती है तथा उठाई गई आपत्तियों का निवारण अन्वेषण अधिकारी द्वारा ही करवाया जाता है, मगर इस सबके बावजूद जब मुल्जिम सजामुक्त हो जाते हैं, तब इस असफलता का ठीकरा भी पुलिस के सिर ही फोड़ दिया जाता है। न्यायालयों में मुकद्दमों का परीक्षण पूरा होने में वर्षों लग जाते हैं तथा कई बार तो जेल में रखे गए आरोपियों पर आरोप भी सिद्ध नहीं हो पाते। इसके अनेक कारण हो सकते हैं, जैसा कि न्यायालयों व न्यायाधीशों की कमी। मगर यह भी सच है कि कई मुकदमों को बिना वजह से लटकाया जाता है। इसके अतिरिक्त आपराधिक न्यायिक प्रक्रिया में संविधान में वर्णित प्रयोजन भी अन्याय के लिए जिम्मेदार हैं। संविधान की धारा 20 (1) के अंतर्गत किसी अपराधी को अपने विरुद्ध साक्ष्य देने या बयान देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। इसी तरह न्याय का यह प्रसंग कि चाहे 100 में से 99 अपराधी सजामुक्त हो जाएं, मगर एक मासूम को सजा नहीं मिलनी चाहिए, यह भी त्वरित न्याय के लिए बाधक है। इसी तरह जस्टिस मालीमथ कमेटी की रिपोर्ट, जो कि वर्ष 2002 में प्रकाशित हुई थी, को लागू न करना भी न्याय प्रक्रिया में देरी का एक कारण है। इसलिए जनता का विश्वास प्राप्त करने के लिए पूरी न्याय प्रणाली को दुरुस्त करने की जरूरत है।


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