मजदूर से ‘मजबूर’…खाने की बजाए मिलने लगीं लाठियां

By: Jun 1st, 2020 12:01 am

कोरोना वायरस, लॉकडाउन और कर्फ्यू के बाद एक और महामारी लगभग समूचे देश में फैली। बेरोजगारी और उससे उपजी बदहाली की! इसका सबसे बड़ा शिकार कामगार तबका हुआ। खासतौर से प्रवासी मजदूर। वे रोजी-रोटी के लिए एक से दूसरे प्रदेश को प्रवास करते हैं और यह सिलसिला मुद्दत से जारी है। कोरोना वायरस के बाद हालात बदले। भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के। काम-धंधे एक झटके में पूरी तरह ठप्प हो गए तथा तमाम औद्योगिक परिसरों पर ताले लटक गए। करोड़ों मजदूर एकाएक बेरोजगारों की श्रेणी में शुमार हो गए। पास धन के नाम पर जो कुछ भी था, रफ्ता-रफ्ता खत्म हो गया। मजदूर से ‘मजबूर’ हो गए। बाद में खाने और अनाज की बजाए फजीहत और पुलिसिया लाठियां मिलने लगीं। फिर केंद्र ने उनकी घर वापसी के लिए विशेष रेलगाडि़यां चलाने की घोषणा की। नतीजतन अब प्रवासी मजदूर अपने-अपने मूल राज्यों को लौट रहे हैं। ‘घर वापसी’ का यह दर्दनाक मंजर देश में पहली बार दरपेश हुआ है। पंजाब में कृषि, व्यवस्था और औद्योगिक जगत का काफी कुछ बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश के मजदूरों पर निर्भर रहा है। लाखों प्रवासी मजदूर इस दौर से पहले यहीं बस गए थे। अन्य लाखों हर सीजन में आकर लौट जाते थे। केंद्र सरकार की घोषणा के बाद अपने गृह राज्य जाने के लिए करीब 11 लाख प्रवासी श्रमिकों ने पंजीकरण करवाया। इन पंक्तियों को लिखने तक जालंधर, लुधियानाए अमृतसरए बठिंडाए पटियाला और पठानकोट से चली ट्रेनों के जरिए लगभग पांच लाख प्रवासी मजदूर अपने-अपने मूल राज्यों को लौट चुके हैं और शेष प्रतीक्षारत हैं। हर शहर के रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों के बाहर उनकी लंबी कतारें लगी हैं। पंजाब में लॉकडाउन के बाद बंद बेशुमार औद्योगिक इकाइयां सरकारी हिदायतों से खुल चुकी हैं और सूबे के खेतों में धान रोपाई होने को है। ऐसे में उद्योगपति और किसान तो नहीं ही चाहते कि प्रवासी मजदूर अब वापसी करें, राज्य सरकार भी नहीं चाहती। उद्योगपतियों और किसानों के साथ-साथ पंजाब की कैप्टन अमरेंदर सिंह सरकार ने वापसी के लिए आतुर मजदूरों से अपील की है कि वे न जाएं, क्योंकि हालात बदल रहे हैं और अब उन्हें रोजगार की दिक्कत नहीं होगी। कुछ मजदूर रुकने को राजी हो गए हैं, लेकिन ज्यादातर वापसी के लिए बाजिद हैं। इसकी मूल वजह है लॉकडाउन और कर्फ्यू के दरमियान उन्हें मिले गहरे जख्म और सबक। कई जगह पुलिस-प्रशासन के मुलाजिमों ने उन्हें इनसान तक नहीं समझा और बेइंतहा ज्यादतियां कीं। उनका कसूर था कि वे भूख से आजिज होकर खाना और काम मांग रहे थे। नहीं मिला, तो कई शहरों में सड़कों पर उतर कर रोष-प्रदर्शन किया। सरकार और व्यवस्था उनका संरक्षण नहीं कर सकी और वे मुसलसल बेगाने बना दिए गए। अब वे सरकार पर कैसे भरोसा करें, प्रताड़ना का जो सिलसिला इस बीच उनके साथ चलाए वह उन्हें तार्किक तौर पर पलायन के लिए मानसिक तौर पर पुख्ता कर चुका है। फिर चौतरफा हालात अनिश्चितता के हैं। लॉकडाउन और कर्फ्यू के बीच उनकी कोई अपील-दलील सुनने वालों ने नहीं सुनी। जिन कोठड़ीनुमा कमरों में सालों से वे रह रहे थे, उनका किराया महज एक महीना नहीं दे पाए तो वहां से रातों-रात खदेड़ दिए गए। बल के जरिए सड़क पर फेंक दिए गए। आगे पुलिस के डंडे मिले। बहुतेरों का तो सामान भी जब्त कर लिया गया। यह भी कोरोना-काल का क्रूर यथार्थ है। सरकार ने उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया था। कोई सुध नहीं ली। फिलहाल तक तो रुकने के लिए दिए जा रहे आश्वासन कोई बहुत ज्यादा असर करते दिखाई नहीं दे रहे। जायजा बताता है कि रुकने का फैसला उन्होंने ही किया है, जिनके पास यही अंतिम विकल्प है। हालात भविष्य में क्या करवट लेंगे, वर्तमान में कोई नहीं जानता, लेकिन जाने वाले जा रहे हैं और बाकियों के इरादे वापसी के लिए मजबूत हैं। अलबत्ता उद्योगपतियों और किसानों की फिक्र में जबरदस्त इजाफा है। कुछ मजबूरियां जरूर होंगीं कि वे बावक्त प्रवासी मजदूरों के काम नहीं आ पाए। जो आए उनकी तादाद नाकाफी है। कई मजदूर कहते मिलते हैं सरकार तो सरकार, मालिक लोग भी निष्ठुर निकले!

            —अमरीक सिंह


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