संकट में भी सियासत

By: Jun 30th, 2020 12:05 am

प्रधानमंत्री मोदी ने चीन का नाम लिए बिना ही उसे ‘दुष्ट’ करार दिया है। उन्होंने दुष्ट की व्याख्या भी की है कि ऐसा व्यक्ति विद्या का प्रयोग विवाद में, धन का प्रयोग घमंड में और ताकत का प्रयोग दूसरों को तकलीफ  देने में करता है। सज्जन की प्रवृत्ति इसके बिलकुल विपरीत है। ऐसा व्यक्ति ताकत का इस्तेमाल अपनी रक्षा के लिए करता है। भारत की प्रवृत्ति भी यही है। यदि चीनी सरहद के पास सैनिकों की संख्या बढ़ानी पड़ी है और माउंटेन स्ट्राइक कोर के इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप के जवानों को अग्रिम मोर्चे पर तैनात करना पड़ा है, तो यकीनन भारत माता की संप्रभुता और उसके सीमाई अस्तित्व की रक्षा के मद्देनजर ऐसा किया गया है। माउंटेन स्ट्राइक कोर पहाड़ों पर लड़ने वाले विशेषज्ञ सैनिकों का दस्ता है। चीनी सैनिक अभी ऐसी लड़ाई में प्रशिक्षण पा रहे हैं। लेकिन हमारा बुनियादी विषय यह नहीं है। दरअसल हमारे सार्वजनिक और सियासी जीवन में भी ऐसे ‘दुष्ट’ मौजूद हैं, जो राष्ट्रीय सुरक्षा की गरिमा तक नहीं जानते और चीन की पैरोकारी करते सवालों पर उनका राग अटका है। चूंकि ‘जयचंद’ सरीखे चेहरे भी हमारी ऐतिहासिक परंपरा ने दिए हैं, लिहाजा कोरोना वायरस और चीन के साथ गंभीर तनावों के दोहरे संकट-काल में ऐसी सियासत पर संदेह होते हैं। उनके तार्किक कारण भी हैं। सियासत के एक तबके को न तो प्रधानमंत्री के बयान पर विश्वास है और न ही सेना प्रमुखों के ब्यौरों पर भरोसा है। वह एक ही राग बजा रहा है कि चीन ने हमारी कितनी जमीन छीन ली है? हमारे सैनिक कहां ‘शहीद’ हुए और वे निहत्थे क्यों थे? बेशक सवाल करना एक लोकतांत्रिक अधिकार है। उसे लेकर कोई भी हुकूमत या व्यवस्था, किसी को भी, देशद्रोही करार नहीं दे सकती। लेकिन गौरतलब समय है। यह सामान्य समय नहीं है। चीन के साथ टकराव या तनाव की स्थितियां अभी समाप्त नहीं हुई हैं। हालांकि युद्ध की घोषणा नहीं की गई है, लेकिन दोनों पक्षों की सेनाएं एलएसी पर डटी हैं। आमने-सामने का तनाव किसी भी हद तक भड़क सकता है। ये हालात सामान्य होंगे, तो सेना और केंद्र सरकार दोनों ही मीडिया के जरिए देश को ब्रीफ  करेंगी। सवालों की गुंजाइश वहां भी होगी। दरअसल ज्यादातर सवालों के बुनियादी जवाब दिए जा चुके हैं, लेकिन प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री और विदेश मंत्री के अलग-अलग बयानों में विरोधाभास पैदा किए जा रहे हैं। उनकी व्याख्या गलत की जा रही है। एक सीमा के बाहर जाकर प्रधानमंत्री भी सुरक्षा संबंधी नाजुक सूचनाएं सार्वजनिक नहीं कर सकते, क्योंकि दुश्मन घात लगाए बैठा है। निष्कर्ष यह है कि चीन ने अतिक्रमण की लगातार कोशिशें की हैं, लेकिन हमारे रणबांकुरों ने हर बार उन्हें रोका है। ऐसे ही प्रतिरोध के दौरान 15-16 जून की हिंसक और हत्यारी झड़प हुई थी। इस संदर्भ में पूर्व सेनाध्यक्ष एवं मौजूदा केंद्रीय मंत्री जनरल वीके सिंह ने एक नया खुलासा किया है। उसके कारणों की गहराई में फिलहाल जाना संभव नहीं है। बहरहाल सरहदों के अग्रिम मोर्चे पर न प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री, न ही सियासतदां और न ही हमारे जैसे देश के नागरिक जा पाते हैं। चूंकि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में सेना, विदेश मंत्रालय और खुफिया टीमें आदि अपनी-अपनी रपट प्रधानमंत्री को सौंपती हैं। उनके आकलन के आधार पर प्रधानमंत्री बयान देते हैं। यदि विरोधी होने के कारण सियासी तबके प्रधानमंत्री को ही झुठलाने की कोशिश करते हैं, तो वे परोक्ष रूप से भारतीय सेना और सामूहिक तौर पर अपने देश को ही ‘झूठा’ करार देते हुए कलंकित करते हैं। क्या ऐसी सियासत, लोकतंत्र में ही सही, स्वीकार्य हो सकती है? चीन ऐसे ‘जयचंदों’ के बयान देखता-सुनता है और भारत के आंतरिक विभाजन पर अट्टहास करता होगा! शरद पवार इस देश के रक्षा मंत्री भी रहे हैं। ऐसे सवालों को उन्होंने देश-विरोधी और दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया है। देश में सुरक्षा के सच तो ये हैं कि अभी तक चीन हमारे करीब 74,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को कब्जा चुका है। अक्साई चिन भी हमारा है, जिस पर चीन का अवैध कब्जा है। लद्दाख के ही कई इलाकों में चीन 2005-06 से अवैध निर्माण करता रहा है। उन ढांचों को आज तक ध्वस्त क्यों नहीं किया जा सका? कमोबेश आंख में आंख डाल कर करारा जवाब देने की कोशिश तो की होती! बहरहाल यह सब हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला है और फिलहाल संकट के रहते इसे सेना के हवाले ही छोड़ देना चाहिए। सेना के सरपरस्त देश के प्रधानमंत्री ही होते हैं।


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