ज्ञान का उपयोग
श्रीश्री रवि शंकर
संसार की भाषा है कलह, दिल की भाषा है प्रेम और आत्मा की भाषा है मौन। अब किस भाषा में बात करें। दिल की जो भाषा है उसमें शब्द कोई ज्यादा मायने नहीं रखते। वैसे जब कारोबार करते हैं, दुकान चलाते हैं, उसमें तो दिल की भाषा नहीं होती, उसमें दिमाग का काम होता है। मगर जहां आत्मा का संबंध है, वहां तरंग काम कर रही होती है, कोई ज्यादा बोलने की जरूरत नहीं पड़ती। फिर भी तृप्त हो जाते हैं हम। ज्ञान को पकड़ोगे कितना ज्ञान चाहिए। अच्छा ठीक है, दुनिया भर के सब शास्त्रों का ज्ञान समझ लिया, फिर करोगे क्या? ज्ञान का उपयोग तब तक है जब तक मैल न धुल जाए। जैसे कपड़े में मैल लग गया, तुम साबुन लगाते हो, फिर साबुन को भी धो देते हो कि नहीं ? इसी प्रकार ज्ञान के समान पवित्र करने वाला कुछ नहीं है, ज्ञान डिटरजेंट है। यदि ज्ञान को हम दान नहीं करते हैं, त्यागते नहीं हैं, तो ज्ञान ही अहंकार बन सकता है। अकसर तुम पाओगे जो ज्ञानी लोग हैं, उनमें अहंकार बहुत जबरदस्त होता है, भोलापन नहीं होता, सहजता नहीं होती और सहजता नहीं होने से फिर अविनाशी तत्त्व का अनुभव नहीं होता। चाहे तुम कुछ भी नहीं जानते हो, फिर भी तुम सहज होते हो, तो अविनाशी तत्त्व मिल जाता है। जितनी हमारी चेतना सहज, तरल होती है, उतने ही हम आत्मा के करीब होते हैं। आप यदि गीता को गौर से देखते हैं, तो लगेगा कि यह क्या बात है? सब कुछ कहने के बाद आखिर में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, ‘अर्जुन’ सब कुछ छोड़ दो, सभी धर्मों को त्याग कर मेरी शरण में आ जाओ। भई, तब अठारह अध्याय सुनने की क्या जरूरत थी यदि सब छोड़ना ही था? सब गुणों का वर्णन किया, कर्म के बारे में, धर्म के बारे में, भक्ति के बारे में, सब कहने के बाद कहते हैं सब कुछ छोड़-छाड़ कर तुम आ जाओ। सब पहले ही कह देते सारा झंझट ही खत्म नहीं? ज्ञान को हम साबुन के जैसे समझते हैं, मन का मैल धुल जाता है, शुद्ध हो जाता है। देखो, अब क्या हो रहा है? सब लोग यहीं है कि कोई बाहर चले गए? सब हैं, मौजूद हैं , आप बैठे तो हो मगर आपका मन तो निकल गया बाहर। 2-2 मिनट में आप हवा लेने के लिए निकल जाते हो। तीन मिनट से ज्यादा कोई सुनते ही नहीं। हर तीन मिनट में बाहर निकल जाते हैं। मन, शरीर तो यहां मौजदू है, मन कभी दुकान में, कभी घर पर निकल गया, दोस्त के पास, क्या करना है, है कि नहीं? मान लो कि हम कुछ नहीं बोलें, ऐसे ही बैठे रहें आधे घंटे, पता है क्या होगा ? आप बैठ नहीं पाओगे, ऊपर देखोगे बत्ती को देखोगे, बत्ती को गिनने लग जाओगे कि कितने बल्ब हैं, पंखों को गिनोगे, कितने पंखें लगे हैं, ठीक है कि नहीं। मन भटकता है क्यों? कभी सोचा है, मन भटक क्यों रहा है? क्या चाहिए है इसको? चैन है नहीं क्यों अपने में। सबकी एक ही मांग है प्रेम, प्यार चाहिए, जो बांध कर रखे मन को और प्यार के बिना जितनी भी पूजा करो, मंत्र करो, जप करो, कथा सुनो, कुछ लगेगा ही नहीं। उसका कुछ असर नहीं। हमें क्या चाहिए, इस पर हमारी दृष्टि पड़ जाए, वही काफी है, हमें इतना भी नहीं पता है हमें प्यार की आवश्यकता है, ऐसे प्यार की जरूरत है, जो अविनाशी है, जो कभी घटता नहीं, पुरानी प्रीत चाहिए हमें।
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