हिमाचली भाषा के लिए पंजाबी जरूरी-1

By: Jun 21st, 2020 12:04 am

अधिकांश हिमाचली नागरिक भाषा के प्रश्न का उत्तर देते हुए इंग्लिश, हिंदी, पहाड़ी, पंजाबी और उर्दू का जिक्र करते देखे जाएंगे, लेकिन इसी बीच चुपके से यह राज्य संस्कृत को दूसरी राजभाषा बनाने का प्रकोष्ठ बन गया। यानी अब शिक्षा मंत्री सुरेश भारद्वाज हमारे बच्चों को प्राइमरी से ही संस्कृत भाषा का अमृत चटाएंगे और कल बौद्धिक विकास के इस सफर की परिणति में एक संस्कृत विश्वविद्यालय राज्य की बजटीय आंतों का मुआयना करेगा। हमें उत्तराखंड की ऐसी लत पड़ी कि अपनी सांस्कृतिक तथा भाषायी पृष्ठभूमि को छोड़कर संस्कृत को दूसरी राजभाषा बना डाला। संस्कृत की ऐसी खिचड़ी न तो पड़ोस में कहीं पकी और न ही उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, दिल्ली और मध्यप्रदेश जैसे हिंदी राज्य इसके करीब खड़े हुए, बल्कि इन राज्यों में उर्दू को दूसरी भाषा का स्थान हासिल है। हिमाचल भी अतीत में उर्दू को तरजीह देता रहा है और जब पंजाब के पर्वतीय क्षेत्र इसमें शामिल हुए, तो पंजाबी भाषा की कद्र बढ़ गई। आश्चर्य यह कि हिमाचल में पंजाबी के बजाय संस्कृत को अधिमान दिया गया, जबकि प्रदेश के करीब पचास लाख लोग अपनी पहाड़ी बोलियों को पंजाबी भाषा के नजदीक पाते हैं। हिमाचल के कितने विधायक संस्कृत बोल या समझ पाते हैं या जब भाषा संबंधी संशोधन बिल पारित हुआ तो कितनी बार संस्कृत का उपयोग हुआ, इस पर भी तुर्रा यह कि हिमाचल पहले ऐसा हिंदी भाषी प्रदेश बना, जहां अंग्रेजी का प्रयोग अधिकतम होता है और अब दूसरी राजभाषा के रूप में संस्कृत को स्वीकार कर रहा है, जबकि हमारी संस्कृति के संबोधन पंजाबी से जुड़ी रिवायतों से मेल खाते हैं।

विडंबना यह है कि जब संस्कृत भाषा को सियासी अवतार बनाया जा रहा था, तो एकमात्र विरोध पंजाब की ओर से आप पार्टी के विधायक की ओर से आया, जबकि हिमाचल का साहित्यिक जगत भी आंखें मूंदे बैठा रहा। ऐसे में बच्चों के आरंभिक भाषायी संस्कार अगर संस्कृतनिष्ठ किए जाते हैं, तो यह हिमाचल की सांस्कृतिक-भाषायी विविधता के एकदम विपरीत होगा। सरकार अगर किसी विशेष प्रयोजन या संस्कृत के जरिए रोजगार पैदा करने के उद्देश्य से भाषा के द्वितीय चरण को आजमा रही है, तो भी यह फैसला बच्चों के भाषायी विकास को अवरुद्ध करेगा। यह इसलिए क्योंकि संसार की क्लिष्ट भाषाओं में संस्कृत भी शामिल है। इसकी वर्तनी बेहद कठिन है, जबकि इसका हिमाचली परिवेश के साथ कोई ताल्लुक भी नहीं है। यह हिमाचली पहचान और सामाजिक इतिहास के भी खिलाफ है कि हम बचपन के विकास और संवाद को कठिन प्रयोग से जोड़ दें। अगर भाषा से ही बचपन का विकास संभव है, तो मातृ बोलियों के समीप खड़ी भाषा को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। यह अभिव्यक्ति और संवेदना को महसूस करने का सरल तरीका भी नहीं है कि हमारे बच्चे प्राइमरी से संस्कृत में नए भाषावाद के सिपाही बनें।

यह हिमाचली भाषा की खोज व उसके निखार के खिलाफ एक ऐसा फैसला है, जिस पर बुद्धिजीवियों और लेखकों के सरोकारों पर तरस आता है। हिमाचल की बोलियों के 73 प्रतिशत हिस्से में न केवल एक हिमाचली भाषा का उद्गम तय है, बल्कि ये पंजाबी भाषा के भी करीब हैं। यानी अगर हिमाचल में पंजाबी को दूसरी राजभाषा का दर्जा दिया जाता तो यह सोचने-समझने तथा रिश्तों-रिवायतों को थामने का एक सशक्त सेतु साबित होता। जम्मू-कश्मीर ने उर्दू के साथ कश्मीरी, डोगरी, बाल्टी, पंजाबी, हिंदी, लद्दाखी, पहाड़ी या कोहिस्तानी भाषाओं के प्रति सरोकार दिखाए, तो यह क्षेत्रीय संस्कृति के प्रति ईमानदारी है। झारखंड ने हिंदी, उर्दू के अलावा दस भाषाओं को द्वितीय प्राथमिकता दी, तो हिमाचल के बच्चों को संस्कृत का खिलौना क्यों बनाया जा रहा है।

(-शेष अगले अंक में) -निर्मल असो


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