कोरोना और रेल की कूक

By: Jun 21st, 2020 12:05 am

कोरोना काल के अनुभव

कुलराजीव पंत, मो.-8580449989

बहुत दिनों से एक चुप्पी वातावरण में पसरी हुई थी। जिंदगी घर की चारदीवारी में सिमट कर रह गई थी। सुबह-शाम के समाचारों में प्रमुख खबर कोरोना की ही रहती थी। बच्चों को घर पर रोके रखना मुश्किल हो रहा था। हवा, धूप, बारिश सब अपने-अपने हिसाब से आ-जा रहे थे, पर जीवन में कोई विशेष रोमांच न भर पाए थे। सब कुछ एक बंधे-बंधाए ढर्रे पर उदास सा चल रहा था। परिवहन के तमाम साधन बंद थे। जरूरी सामान की दुकानें अवश्य खुल रही थीं, पर कुछ घंटों के लिए। इस उदास से माहौल में एक दिन अचानक रेल की कूक सुनाई दी। पहले यह कूक भ्रम-सी लगी। कुछ देर बाद गाड़ी की छुक-छुक की हल्की-हल्की आवाज भी सुनाई देने लगी। उत्सुकता बढ़ी तो तेजी से चलकर घर की गैलरी में खड़ा हो गया। गाड़ी की कूक फिर पूरी घाटी में गूंज उठी। रेल हमारे घर से दूर दिखते जंगल के बीच से आती हुई दिख जाती है। बीच-बीच में पहाड़ों के भीतर के गहरे मोड़ों से गुजरते हुए उसकी आवाज बहुत मंद हो जाती है। कुछ देर बाद गाड़ी की आवाज साफ-साफ सुनाई देने लगी। एक कूक के साथ दूर मोड़ पर गाड़ी का इंजन प्रकट हुआ। पीछे एक डिब्बा पानी की टंकियां लिए हुए और एक गार्ड का डिब्बा। यह दृश्य देख मन प्रसन्नता से भर गया। बहुत दिनों से चारों ओर पसरी उदासी को गाड़ी की कूक और छुक-छुक ने अचानक तोड़ दिया। अब तक गाड़ी की आवाज सुन बच्चे भी घर की गैलरी में आ गए थे। आसपास, आमने-सामने वाले घरों में रहने वाले लोग भी बाहर आ गए थे। बच्चों की खुशी का ठिकाना नहीं था। वह गाड़ी की तरफ देख बार-बार हाथ हिला रहे थे। गाड़ी के ड्राइवर को देख बाय-बाय अंकल, बाय-बाय अंकल चिल्ला रहे थे। क्योंकि गाड़ी घर के बहुत पास से गुजरती है तो इंजन के ड्राइवर और गार्ड से आंखें मिल ही जाती हैं, बेशक दूर से ही सही। अब लगने लगा कि जिंदगी शीघ्र ही पहले की तरह पटरी पर लौटेगी, अपनी तमाम खटपट की आवाजों के साथ। रेल लाइन के आसपास के तथा घाटी के बहुत से घरों की गतिविधियां गाड़ी की सुबह-शाम की आवाज से जुड़ी रहती हैं। यह आवाज इन घरों में कितनी महत्त्वपूर्ण है, यह इसके बंद होने पर गहराई से महसूस किया गया। ठहरे हुए जीवन में यह हलचल 15 अप्रैल 2020 को विश्व धरोहर कालका-शिमला रेलमार्ग पर चली स्पेशल ट्रेन ने मचाई थी। इस विशेष ट्रेन का उद्देश्य गैंग हट्स तथा उन रेलवे स्टेशनों पर पेयजल आपूर्ति करना है, जहां गर्मियों में पानी की कमी से दिक्कत हो जाती है। बहुत दिनों बाद सुनी गाड़ी की छुक-छुक और कूक की आवाज के बहाने घर के बड़े-बूढ़ों को गाड़ी के पुराने दिन याद आ गए। उन दिनों गाड़ी स्टीम इंजन से चला करती थी जिसके लिए कोयले का प्रयोग होता था। इंजन से अंगारे गिरते रहते और बुझते ही कोयला बन जाते। रेल लाइन के साथ-साथ अक्सर कुछ लोग कोयला बीनते दिख जाते थे। वह यह कोयला हलवाइयों और ढाबे वालों को बेच चार पैसे कमा लेते थे।

स्टेशन पर गाड़ी के रुकने पर कुछ लोग इंजन से निकलने वाला गरम पानी भी भरते थे। उस समय इस पानी को रोग प्रतिरोधक माना जाता था। उस गाड़ी की कूक और छुक-छुक की आवाज कुछ अलग थी। वह जमाना भी तो कुछ अलग था ना, बूढ़े यह किस्से बच्चों से सांझा करते हुए कहते। वह यह भी बताते कि वह रेल लाइन के साथ कहां से कहां चले जाते थे। रेल लाइन पर कान लगा गाड़ी की आवाज सुन अंदाजा लगा लेते कि गाड़ी आसपास कहां पहुंची है। स्टीम इंजन की भट्ठी में आग की बड़ी-बड़ी लपटें भभकती रहती और एक आदमी उसमें बेलचे से कोयले डालता। इस यात्रा में यात्रियों के कपड़ों पर कालिख की एक हल्की-सी परत जम जाती। यात्रा के एक-दो दिन बाद तक गाड़ी की आवाज और झटके महसूस होते रहते। गाड़ी कुछ घंटों में शिमला पहुंचने वाली थी। वहां टै्रक पर बिखरे फूलों को देख ऐसा लग रहा था जैसे शिमला के आसपास के जंगल बुरांस के फूलों की पंखुडि़यां फैला गाड़ी को रैड कारपेट वैलकम देने की तैयारी में जुटे हों। गाड़ी कल वहां से कालका के लिए रवाना होगी, हम उसका इंतजार करेंगे। गाड़ी की कूक और छुक-छुक फिर घाटी में गूंजेगी, बेशक दिन में एक बार ही सही। गाड़ी के चलने से कुछ बदला-बदला सा अच्छा-अच्छा सा लगना शुरू हो गया है।


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