पाठ्यक्रम में साहित्य का औचित्य

By: Jun 21st, 2020 12:05 am

डा. पान सिंह, मो.- 7691601720

साहित्य का अर्थ ही ‘सबका हित है’ और जिस विषय में हित की भावना समाहित हो, वह पठनीय है। जहां तक ‘साहित्य’ के औचित्य का प्रश्न है तो जिस विषय का उद्देश्य, आधार, प्रयोजन, ढांचा सभी हित की भावना से ओत-प्रोत है, वहां उसका औचित्य स्वयंमेव ही सिद्ध हो जाता है। जहां ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ की भावना काम करती हो, वहां सभी तर्क, तथ्य, प्रमाण, प्रयोग, बंधन और बहस निरर्थक हैं। साहित्य में समय, समाज, देश, परिवेश और समस्त संसार की मानव जाति का हित समाहित रहता है। साहित्य में विभिन्न संभावनाएं और सामर्थ्य हैं। साहित्य से मनुष्य का सर्वपक्षीय विकास संभव है। इसमें कोई दो राय नहीं कि साहित्य पठनीय है, लेकिन प्रश्न यह उठता है कि शिक्षा के स्तर पर पाठ्यक्रम में साहित्य का निर्धारण कैसे और कितना हो? तो सबसे पहले शिक्षा में पाठ्यक्रम का निर्धारण करते समय यह देखना होगा कि पाठ्यक्रम किस स्तर का है? प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च, उच्चत्तर, स्नातक या स्नातकोत्तर। स्नातकोत्तर के बाद का अध्ययन तो शोध का विषय है जो कि शोधार्थी की मनोवृत्ति पर निर्भर करता है। पाठ्यक्रम में भाषा, साहित्य, व्याकरण और भाषा विज्ञान में से किस स्तर पर कितनी मात्रा हो, यह एक महत्त्वपूर्ण विषय और कार्य है। इस कार्य हेतु भाषा विशेषज्ञों की एक कमेटी गठित की जाती है जो इस कार्य को बड़ी बारीकी से निरीक्षण-परीक्षण के उपरांत तय करती है। लेकिन फिर भी कहीं न कहीं पाठ्यक्रम में साहित्य की मात्रा तय करने में चूक हो ही जाती है, जिससे विद्यार्थियों को उसका निर्धारित फायदा नहीं मिल पाता।

प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च स्तर तक की शिक्षा के पाठ्यक्रम में साहित्य की मात्रा पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है क्योंकि इसके बाद विद्यार्थी की स्ट्रीम बदल जाती है और वह साहित्य से वंचित हो जाता है, जिससे उसके बौद्धिक स्तर पर विषयानुरूप भावनाओं में बदलाव आता है। अतः इस स्तर तक पाठ्यक्रम में भाषा, साहित्य और व्याकरण की एक नपी-तुली मात्रा होनी ही चाहिए ताकि विद्यार्थियों को साहित्य का उतना ज्ञान तो मिल सके जिससे वह साहित्यिक बारीकियों को जान सकें और साहित्य के गुणों को आत्मसात कर सकें। अपने समाज को जान सकें। अन्य विषयों को पढ़ सकें। भारतवर्ष में शिक्षा का ढांचा एक जैसा नहीं है। शिक्षा की नीतियों में राजनीति का प्रभाव अधिक है। प्रत्येक राज्य में शिक्षा नीतियां भिन्न-भिन्न हैं, जिसकी वजह से तय नहीं किया जाता कि किस स्तर तक साहित्य को स्थान दिया जाए और किस भाषा को जरूरी भाषा के रूप में पढ़ाया जाए और किस भाषा को दूसरी भाषा के रूप में रखा जाए। लेकिन होना यह चाहिए कि प्रत्येक स्ट्रीम में साहित्य आवश्यक किया जाए और उसकी मात्रा निर्धारित की जाए ताकि विद्यार्थी साहित्य के गुणों से परिपूर्ण हो और एक अच्छे नागरिक की तरह देश, समाज, परिवेश और जन-समाज के प्रति पूर्ण रूप से संवेदित हो, अपने कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्वों का निर्वाह कर सके और यह संभावना केवल साहित्य में ही है, क्योंकि साहित्य में जो भाव हैं, वे अन्य विषयों में नहीं। मनुष्य विज्ञान के बिना जी सकता है, लेकिन भावों के बिना नहीं। भावों से विहीन मनुष्य पशुता से भी निम्न होता है। साहित्य का संबंध भावों से है। इसीलिए इसका संबंध हृदय जगत से अधिक है और बौद्धिक जगत से कम। साहित्य मनुष्य की हार्दिक भावनाओं और संवेदनाओं को जागृत करता है। भावनाएं और संवेदनाएं होंगी तो मनुष्य नैतिक होगा। उसके विचारों एवं भावनाओं में नैतिकता आएगी। सद्भावनाएं आएंगी। सहिष्णुता का भाव आएगा। उसकी बुद्धि संवेदित भावनाओं के प्रभाव से अनिष्ट कार्यों से दूर रहेगी।

वर्तमान में हमें सामाजिक-विसंगतियों से मुक्ति हेतु साहित्य को पाठ्यक्रम में निर्धारित करना ही होगा। पशुतुल्य, संस्कारहीन, भावशून्य, कर्त्तव्यहीन एवं उत्तरदायित्वहीन मनुष्य के लिए साहित्य संजीवनी है। साहित्य जीवन को गति एवं दशा-दिशा देता है, सभ्यता-संस्कृति और परंपरा से जोड़ता है, अच्छे-बुरे का भान करवाता है, स्थितियों-परिस्थितियों से अवगत करवाता है, संस्कारित और सामाजिक बनाता है। साहित्य हमें इतिहास, धर्म, दर्शन, कला, विज्ञान, गणित, ज्योतिष, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र तथा संगीत जैसे विषयों से जोड़कर ज्ञान वृद्धि करवाता है। अतः पाठ्यक्रम में साहित्य का उचित विधान होना आवश्यक है ताकि हमारी पीढ़ी में साहित्य के उपर्युक्त भावों एवं गुणों का समावेश हो सके। मनुष्यता बची रहे और साहित्य, सभ्यता एवं संस्कृति का विकास हो सके।


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