पौष्टिक और सात्विक आहार

By: Jun 10th, 2020 10:50 am

श्रीराम शर्मा

आहार पौष्टिक ही नहीं, सात्विक भी हो। मानवी सत्ता जिस प्रकार संवेदनशील है, उसी प्रकार उसके आहार में भी संपर्क  क्षेत्र का प्रभाव ग्रहण करने की क्षमता है इसी बात को यूं भी कह सकते हैं कि मनुष्य का पाचन तंत्र विलक्षण है, वह न केवल आहार से शारीरिक पोषण प्राप्त करता है, वरन उसमें सन्निहित सूक्ष्म शक्ति एवं संवेदना भी ग्रहण करता है। जबकि अन्य प्राणी शरीर प्रधान होने के कारण मांस, रक्त मात्र ही प्राप्त करते हैं। यूं तो चेतना के संपर्क से प्रभावित सभी पदार्थ होते हैं, पर यह विशेषता मानवी आहार में विशेष रूप से पाई जाती है, वह उगाने, पकाने, परोसने वाले व्यक्तियों से प्रभावित होती है। स्थानों में संव्याप्त भिन्न-भिन्न प्रकार के वातावरण उस पर अपनी छाप छोड़ते हैं। फलतः वह जिसके पेट में जाता है, उसके न केवल शरीर में वरन मनः संस्थान में भी भली-बुरी विशेषताएं उत्पन्न करता है, जो अपने भीतर अर्जित कर रखी थी। एक पुरानी लोकोक्ति है, जैसा खाए अन्न वैसा बने मन। तात्पर्य यह है कि आहार के साथ जुड़ी हुई विशेषताएं न केवल शरीर को वरन मन को भी प्रभावित करती हैं। चिंतन के प्रवाह में हेर-फेर करती हैं। दृष्टिकोण को, स्वभाव को, रुझान को मोड़ने-मरोड़ने में अपने स्तर का समावेश करती हैं। आहार में पाए जाने वाले पोषक पदार्थोें की तालिका से परिचित यह जानते हैं कि इसका खाने वाले के शरीर पर क्या प्रभाव पड़ेगा। पहलवानों के लिए चिकनाई अधिक उपयोगी पड़ती है और मरीज के लिए सुपाच्य दाल, दलिया, शाकाहार, फलाहार। बालकों को एक स्तर का आहार दिया जाता है, तो प्रौढ़ों को दूसरी तरह का, वृद्धों को तीसरी तरह का। यह निर्धारण शरीरों की स्थिति एवं आवश्यकता का तालमेल बिठाते हुए किया जाता है। आरोग्य मात्र शरीर तक ही सीमित नहीं है। उसका प्रभाव मानिसक स्वस्थता तक चला जाता है। स्वस्थ शरीर और स्वच्छ मन दोनों का अन्योन्याश्रित संबंध है। एक गिरेगा, तो दूसरा भी स्थित न रह सकेगा। इसलिए जब भी सोचना हो, दोनों की सम्मिश्रित स्वच्छता की बात सोचनी चाहिए। इसके लिए आहार और विहार दोनों पर समान रूप से ध्यान देना चाहिए और ऐसा जीवनक्रम अपनाना चाहिए,जिससे इनमें से एक भी टूटने, डगमगाने न पाए। इस संदर्भ में सर्वप्रथम आहार की उपयुक्तता पर ध्यान देना होगा और यह देखना होगा कि वह पौष्टिक ही नहीं सात्विक स्तर का भी है क्या? शरीर स्वास्थ्य हो या फिर मानसिक स्थिति, दोनों में ही आहार के अनुरूप उतार-चढ़ाव आता है। यह ऐसी सच्चाई है, जिसका अनुभव हमारे शरीर शास्त्रियों के साथ हम सबने भी जीवन में अनेक बार किया है और आज भी करते रहे हैं। इसी अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि आहार में न केवल रस-रक्त निर्माण करने की क्षमता है, बल्कि यह चिंतन के स्तर को भी प्रभावित करता है। शुद्ध, सात्विक एवं प्राकृतिक आहार केवल शरीर को ही स्वस्थ नहीं रखता, बल्कि मन को भी शांत एवं स्थिर बनाता है तथा अंतःकरण को पवित्र बनाता है। अंतःकरण के शुद्ध हो जाने पर बुद्धि निर्मल होती है।


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