साहित्यिक आयोजनों में बदलाव की गुंजाइश

By: Jun 28th, 2020 12:05 am

साहित्य के कितना करीब हिमाचल-8

अतिथि संपादक: डा. हेमराज कौशिक

मो.- 9418010646

हिमाचल साहित्य के कितना करीब है, इस विषय की पड़ताल हमने अपनी इस नई साहित्यिक सीरीज में की है। साहित्य से हिमाचल की नजदीकियां इस सीरीज में देखी जा सकती हैं। पेश है इस विषय पर सीरीज की आठवीं किस्त…

विमर्श के बिंदु

* हिमाचल के भाषायी सरोकार और जनता के बीच लेखक समुदाय

* हिमाचल का साहित्यिक माहौल और उत्प्रेरणा, साहित्यिक संस्थाएं, संगठन और आयोजन

* साहित्यिक अवलोकन से मूल्यांकन तक, मुख्यधारा में हिमाचली साहित्यकारों की उपस्थिति

* हिमाचल में पुस्तक मेलों से लिट फेस्ट तक भाषा विभाग या निजी प्रयास के बीच रिक्तता

* क्या हिमाचल में साहित्य का उद्देश्य सिकुड़ रहा है?

* हिमाचल में हिंदी, अंग्रेजी और लोक साहित्य में अध्ययन से अध्यापन तक की विरक्तता

* हिमाचल के बौद्धिक विकास से साहित्यिक दूरियां

* साहित्यिक समाज की हिमाचल में घटती प्रासंगिकता तथा मौलिक चिंतन का अभाव

* साहित्य से किनारा करते हिमाचली युवा, कारण-समाधान

* लेखन का हिमाचली अभिप्राय व प्रासंगिकता, पाठ्यक्रम में साहित्य की मात्रा अनुचित/उचित

* साहित्यिक आयोजनों में बदलाव की गुंजाइश, सरकारी प्रकाशनों में हिमाचली साहित्य

केआर भारती  मो.-9816672455

यथार्थपरक एवं यथार्थ से परे के संसार में जितने भी दृश्य एवं अदृश्य पदार्थ हैं, उनका कोई न कोई सर्जक अवश्य होता है। साहित्य सर्जक साहित्यकार कहलाता है। हर साहित्यकार अपने लेखन द्वारा समाज का कोई न कोई, कैसा न कैसा रूप-स्वरूप गढ़ता है। साहित्यकार साहित्यिक सामग्री को समाज, कल्पना से ग्रहण कर उसे शब्दों और वाक्यों द्वारा मूर्त रूप प्रदान करता है। प्रत्येक युग का मानव हर युग के साहित्य से प्रेरणा लेता रहा है। ऐसे युग में भी जब साहित्य लिखित रूप में मौजूद नहीं था। तब जनमानस लोक वाक् परंपरा में उपलब्ध साहित्य का अनुसरण करता था। हमारे देश में वेद, उपनिषद, पुराण, रामायण एवं महाभारत आदि प्राचीनकाल में साहित्य की भूमिका निभाते थे। समयानुसार साहित्य का रूप-स्वरूप बदला और कहानी, उपन्यास, निबंध, नाटक, एकांकी, कविता एवं ग़ज़ल  इत्यादि अनेकानेक  साहित्यिक विधाओं का विभिन्न भाषाओं के साहित्य में आविर्भाव हुआ। जहां तक हिमाचल प्रदेश में साहित्य लेखन की बात है तो प्रदेश के नैसर्गिक सौंदर्य की छांव में प्रचुर साहित्य का सृजन वर्षों से अनवरत हो रहा है। बाहर के लेखकों का यहां आकर साहित्य सृजन करना वर्षों की लंबी कहानी है। साहित्य सृजन के लिए हिमाचल प्रदेश की धरती को उर्वर भूमि माना जाता रहा है। प्रदेश में साहित्यकारों के सृजन कर्म को प्रोत्साहन देने के लिए राष्ट्र एवं राज्य स्तर पर समय-समय पर साहित्यिक आयोजन किए जाते हैं।

हिमाचल प्रदेश में ऐसे साहित्यिक आयोजन राज्य सरकार के भाषा विभाग तथा कला संस्कृति भाषा अकादमी द्वारा करवाए जाते हैं जिनमें नवोदित साहित्यकारों को मंच प्रदान किया जाता है ताकि वे अपनी साहित्यिक प्रतिभा को संस्कार-परिष्कार दे सकें। वर्तमान में सरकारी स्तर के साहित्यिक आयोजनों के स्वरूप पर विचार करें  तो उनमें आमूल-चूल परिवर्तन अपेक्षित हैं। बहुधा इन आयोजनों में प्रभावोत्पादकता, कल्पनाशीलता, नवीन दृष्टि और गंभीरता का अभाव अखरता है। मसलन, कार्यक्रम में संभव हो तो शोध पत्र  विषय के ज्ञाताओं से ही पढ़वाए जाएं और शोध पत्र पर चर्चा  उन्हीं विद्वानों से करवाई जानी चाहिए जिनकी विषय पर पैठ हो। कई बार ऐसा देखा गया है कि शोध चर्चा के लिए ऐसे रचनाकारों को सहभागिता  के लिए आमंत्रित कर दिया जाता है जिनको उस विषय पर किंचित भी जानकारी नहीं होती। ऐसी स्थिति में वे चर्चा में भाग लेकर अपने होने की उपस्थिति भर ही दर्ज करवा पाते हैं। साहित्यिक आयोजनों में बदलाव की गुंजाइश करते हुए वर्तमान में आने वाली साहित्यिक जमात को साहित्य की विभिन्न विधाओं पर कार्यशालाएं लगाकर उनमें साहित्य सृजन के प्रति रुचि उत्पन्न की जा सकती है। ऐसी बात नहीं कि प्रदेश में समय-समय पर साहित्यिक आयोजन आयोजित न होते हों। पर आवश्यकता इस बात कि है कि बहुआयामी साहित्यिक आयोजन महज खानापूर्ति  के लिए न हों। इसके अतिरिक्त साहित्यिक आयोजनों में बदलाव की गुंजाइश देखते हुए यह भी जरूरी है कि प्रदेश के बाहर के रचनाकारों को भी आमंत्रित कर उनसे प्रदेश के साहित्यकारों का संवाद हो। साहित्यिक आयोजनों में वरिष्ठ लेखकों के साथ-साथ युवा लेखकों को भी ज्यादा से ज्यादा मंच मिलना चाहिए ताकि  नवोदित लेखक वरिष्ठ रचनाकारों के सान्निध्य में उनके साहित्यिक अनुभवों से अधिक से अधिक लाभान्वित हो सकें।

ऐसे आयोजन विद्यालयों, महाविद्यालयों में भी आयोजित हों तो ज्यादा बेहतर रहेगा क्योंकि ऐसा होने पर नवोदित लेखकों के लिए साहित्य सृजन का परिवेश निर्मित किया जा सकेगा। किसी भी साहित्यिक आयोजन के लिए कम से कम  दो दिन की समयावधि होनी चाहिए  ताकि धैर्य और स्थिरता से शोध विषय पर गंभीरता से चर्चा हो और कविता-कहानी आदि का पाठ तन्मयता से किया जा सके। कलाकारों  और लेखकों का समुचित सम्मान होना चाहिए और उनके मानदेय में वृद्धि की जानी चाहिए। यथार्थ के धरातल पर साहित्यिक आयोजन की सफलता के लिए यह अपेक्षित है कि पूरे आयोजन में  सभी लेखक,  कवि,  कहानीकार आदि पूरा समय उपस्थित रहें। देखने में आता है कि लेखक, कवि, कहानीकार आदि अपनी बात के लिए ज्यादा उत्सुक होते हैं, लेकिन दूसरों को सुनने का धैर्य अपने में नहीं रखते।

सभी की उपस्थिति पूरे समारोह में रहे तो समारोह की गरिमा भी बढ़ती है और आयोजन का उद्देश्य भी प्राप्त होता है। मैं स्वयं भी बहुत से साहित्यिक आयोजनों का  हिस्सा रहा हूं तथा साहित्यिक आयोजनों में बदलाव की गुंजाइश के संदर्भ में अपने कड़वे अनुभवों के आधार पर बेबाक कह सकता हूं कि इन आयोजनों में श्रोताओं की कमी हमेशा बनी रहती है। आमतौर पर देखा जाता रहा है कि हर साहित्यिक आयोजन में आमंत्रित कवि और कहानीकार ही रचनाकार, श्रोता की भूमिका निभाते हैं। इसका हल यही है कि साहित्यिक आयोजन स्तरीय हों। आयोजन का प्रचार-प्रसार हो। उनमें गुटबाजी न हो। बार-बार अपने चहेते रचनाकार ही न बुलाए जाएं। प्रदेश स्तर पर साहित्यिक आयोजनों में ऐसा संभव हो सके तो तभी प्रदेश स्तर पर लिखा जा रहा साहित्य राष्ट्रीय फलक पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा सकेगा।

 ऐसा होने पर प्रदेश में रचे जा रहे साहित्य का भी भला होगा और आयोजनों की सार्थकता भी बन पाएगी। समय की साहित्यिक जरूरत को ध्यान में रख, गुटीय साजिशताना साहित्यिक समझ को दरकिनार न किया गया तो हर साहित्यिक आयोजन खानापूर्ति ही होते रहेंगे।


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