गीता रहस्य

By: Jul 18th, 2020 12:20 am

स्वामी  रामस्वरूप

अतः श्रीकृष्ण महाराज अर्जुन को आज से लगभग पांच हजार तीन सौ वर्ष पहले उपदेश दे रहे हैं कि हे अर्जुन तू केवल मेरी ही बात मान किसी अन्य की नहीं और न ही अपने मन की बात मान, मेरी आज्ञानुसार युद्ध कर। श्लोक 9/31 में श्रीकृष्ण महाराज अर्जुन से कह रहे हैं कि वह पुरुष शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है, सदा रहने वाली शांति को प्राप्त होता है…

गतांक से आगे…

मेरे बताए हुए वैदिक मार्ग पर चलता है, अन्य किसी की बात अथवा अपने मन की बात नहीं मानता तब वह एक ‘सम्यक व्यवसित’ दृढ़ निश्चयात्मक बुद्धि वाला पुरुष (अर्थात उसने निश्चय कर लिया है कि मैं श्रीकृष्ण महाराज के वैदिक उपदेश को ही जीवन में अपनाऊंगा अन्य के नहीं )।

ऐसा दुराचारी पुरुष भी उपदेश सुनकर दुराचार, पाप कर्म आदि का त्याग कर देता है। ‘अनन्यभाक्’ पद का अर्थ है वो अतः हे अर्जुन ! वह साधु ही मानने योग्य है। अर्थात वह पुरुष उत्तम प्रकार से साधना करने वाला आज्ञाकारी एवं उपकारी पुरुष हो जाता है। यहां जो श्रीकृष्ण महाराज ने ‘सम्यक व्यवसित’ अर्थात उस दुराचारी पुरुष को भी यथार्थ/दृढ़ निश्चय करके पाप कर्म छोड़ने का संकल्प एवं श्रीकृष्ण महाराज जैसे दिव्य पुरुष अथवा आज के वेद एवं योग विद्या के ज्ञाता, विद्वान की ही सेवा भक्ति करके सत्याचरण धारण करने का संकल्प लिया है और आचार्य की आज्ञानुकूल चलने का संकल्प लिया है। यह दृढ़ निश्चय हर उसको साधु बना देता है और जो एक अनादिकाल से चली आ रही वैदिक भक्ति/उपदेश का त्याग कर देते हैं और तरह-तरह की स्वयं की बनाई हुई अथवा स्वयं को अनुकूल लगने वाली भक्ति करते हैं, भटक जाते हैं। अतः श्रीकृष्ण महाराज अर्जुन को आज से लगभग पांच हजार तीन सौ वर्ष पहले उपदेश दे रहे हैं कि हे अर्जुन तू केवल मेरी ही बात मान किसी अन्य की नहीं और न ही अपने मन की बात मान, मेरी आज्ञानुसार युद्ध कर।

श्लोक 9/31 में श्रीकृष्ण महाराज अर्जुन से कह रहे हैं कि वह पुरुष शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है, सदा रहने वाली शांति को प्राप्त होता है। हे कुंती पुत्र अर्जुन निश्चत ही जान ले कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता।

भावः श्लोक 9/30 एवं श्लोक 9/31 में एक बात निश्चय पूर्वक जानने योग्य है कि श्रीकृष्ण महाराज कह रहे हैं कि जो मेरा भक्त है और जो मेरे अतिरिक्त किसी अन्य को भजने वाला नहीं है अर्थात किसी अन्य की सेवा, भक्ति अथवा शिक्षा को सुनने वाला नहीं, तो केवल उसका ही उद्धार हो जाता है और वह ही साधु बन अथवा धर्मात्मा बनता है।  क्योंकि श्रद्धा, सेवा एवं आज्ञा का पालन वही करेगा जो विद्या को प्राप्त करने की जिज्ञासा रखता होगा। यह जिज्ञासु बनना ही बहुत कठिन होता है। अतः ऐसा नहीं है कि कोई भी दुराचार, विषय-विकारी, कामी-क्रोधी, लोभी-लालची किसी योगेश्वर की शरण में आए और तर जाए। तरेगा वही जो जिज्ञासु होगा और श्रीकृष्ण महाराज ने गीता श्लोक 7/3 में समझा दिया है कि हजारों लाखों मनुष्यों में कोई ही मनुष्य मुझे प्राप्त करने का यत्न करता है।

                               – क्रमशः


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