लगा कि जिंदगी अब थम जाएगी, जीवन नीरस है

By: Jul 26th, 2020 12:06 am

महीनों की तालाबंदी में शुरू के चंद घंटे ‘अच्छा ही होगा’ कहने में अच्छे से बीते। मगर दिनों और फिर महीनों की तालाबंदी कारागार ही साबित हुई। जिंदगी के हजारों मेले लुट गए, खप गए। सड़कें सुनसान हो गईं और पुलिस का एकछत्र राज सर्वव्यापी हो गया। तालाबंदी का शायद पखवाड़ा ही बीता होगा कि देश में इसके विरोध में भी स्वर बुलंद हो लिए। हजारों लोगों की भीड़, न जाने कहां से कहां जाना चाहती थी, सड़कों पर निकल आई…

 लगा कि जिंदगी अब थम जाएगी। जीवन नीरस है और सांसें तो मानो कोरोना के ही हाथ हैं। महीनों की तालाबंदी में शुरू के चंद घंटे ‘अच्छा ही होगा’ कहने में अच्छे से बीते। मगर दिनों और फिर महीनों की तालाबंदी कारागार ही साबित हुई। जिंदगी के हजारों मेले लुट गए, खप गए। सड़कें सुनसान हो गईं और पुलिस का एकछत्र राज सर्वव्यापी हो गया। तालाबंदी का शायद पखवाड़ा ही बीता होगा कि देश में इसके विरोध में भी स्वर बुलंद हो लिए। हजारों लोगों की भीड़, न जाने कहां से कहां जाना चाहती थी, सड़कों पर निकल आई। महानगरों से अपने गांव लौटते मजदूरों में न जाने इतना हौसला कहां से उमड़ आया कि वे अपने परिवारों को साथ लेकर मीलों मील पैदल ही निकल पड़े।

कोई पूर्व से पश्चिम, तो कोई उत्तर से दक्षिण। बस ठिकाने पर पहुंचना ही इनका उद्देश्य था। वे पुलिसिया लाठी की परवाह किए बगैर चले जा रहे थे। रास्ते में भूख से कितने मरे, बीमारी से कितने गुजर गए और अपने से बिछड़कर कितने अनाथ हुए, इसका कोई हिसाब ही नहीं। ऐसी त्रासदी, बताते हैं कि सौ साल बाद मानव जाति को झेलनी पड़ी। इसी बीच एक ऐसा वर्ग भी हमें नजर आया जो सोच-विचार मंथता रहा। साहित्यकार ही वह वर्ग है, जिसने अपने तरीके और सलीके से इस महामारी को देखा, समझा और कलमबद्ध भी किया। इसे हम कोरोना काल का साहित्य भी कह सकते हैं। तो इस दौरान जन्मे साहित्य की तासीर भी काफी कुछ बदली। साहित्यकारों ने शब्दों के काफिलों में ऐसे मसीहा भी ढूंढ लिए जो सदियों बाद भी दस्तावेज बनकर बदलते मानव सवभाव की गवाही देते रहेंगे।

ऐसे भी कई संदर्भ सामने आए और अभी सिलसिलेवार आ रहे हैं, जिनसे पता चलता है कि भीतर का कोरोना कभी मरता नहीं। मसलन अगर किसी ने अपनों की ही लाशें अपनाने और पहचानने से मना कर दिया तो क्या कहिएगा। कोरोना तो प्रकृति का बाहरी संकेत भर है, भीतरी प्रवृत्ति का इशारा तो इससे भी खतरनाक है। मनुष्य सुविधाजनक अच्छाई को सहेजने का हामी है। यही यह कोरोना सिखाता है। बहरहाल इसी काफिले में मसीहा भी कम नहीं हुए, जिन्होंने किसी भी रक्त संबंध की परवाह किए, अनजानों को अपना लिया। तो इस भीतरी और बाहरी कोरोना में बस इतना ही अंतर है कि सुविधाजनक कहां है, और क्या है। इसी बीच बुद्धिजीवियों के मंथन की कडि़यां टूटती और जुड़ती रहीं। शब्द पुस्तकें बन गए और पुस्तकें विचार प्रवाह की नदी बनकर बहने लगीं। ‘दिव्य हिमाचल’ ने भी एक प्रयास किया कि क्यों न हिमाचली कलमकारों से रू-ब-रू हुआ जाए। हिमाचल का पहाड़ी परिवेश लिखने-पढ़ने के लिए हमेशा ही सदा देता है।

कोरोना काल हो, चाहे कोई भी काल हो, यहां का साहित्यकार वर्तमान संदर्भों के सहारे बेहतरीन प्रस्तुतियां देता रहा है। ‘दिव्य हिमाचल’ के प्रयास को सफल बनाने के लिए हामीवर हुए लेखकों के ही प्रयास प्रस्तुत अंक में साया किए गए हैं। उम्मीद है शब्दों का यह काफिला, यह कारवां यूं ही चलता रहेगा, संवरता रहेगा।

-ओंकार सिंह

इस कोरोना राकसे जो मारेयां मां

वीरेंद्र शर्मा वीर

मो.- 9316076175

वीरेंद्र शर्मा वीर का यह भी अलग ही रचना संदेश रहा। कोरोना से आतंकित दुनिया के लिए वे देवताओं की शरण में जाने का संदेश देते हैं। कोरोना काल में लिखी गई वीर की लघु कविता के अंश पेश हैंः-

इस कोरोना राकसे जो मारयां मां

चिंता-दुख सभी लोकां दे तारेयां मां

रक्त बीज बणी करि आया है चीन ते

काबू नीं ओआ दा ये कुसी बीन ते

शेरे अपणे, सिंघे अपणे बैठी तूं हुंकारेयां मां

ये कदेह नवराते तेरे, बंद चुबारे मां

कजो होए सुनसान, तेरे सोहणे द्वारे मां

घर-घर जाई अपणे सबनां भक्तां तारेयां मां

दोनों हत्थां जोड़ी मैं अर्ज लगावां मां

भोग लगावण तैनूं मैं घर ते बुलावां मां

हुण मत करदी देर, न लायां लारेयां मां।

आजादी पर पहरा किसे पसंद है भाई !

मुरारी शर्मा

मो.-9418025190

कोरोना इस सदी का ऐसा दंश है, जिसने हर तरह की आजादी पर ताला जड़ दिया। यहां तक कि सोच-समझ भी उलट-पुलट हो गई। तालाबंदी के इस दौर को भी साहित्यकारों ने सहेज लिया और यही साहित्य का एक ऐसा दस्तावेज बना जिसे सौ साल बाद भी कोरोना गवाही के तौर पर परखा जाएगा, पढ़ा जाएगा। ‘दिव्य हिमाचल’ की सीरीज ‘हिमाचल के अनलॉक साहित्य’ के लिए जब लेख-आलेख आमंत्रित किए गए तो मंडी के प्रसिद्ध साहित्यकार-कहानीकार मुरारी शर्मा की एक बेहद रोचक और लंबी कहानी प्राप्त हुई। मुरारी शर्मा की कहानी के पात्र कई देश-रंग-दिशाओं और कथाओं की सैर करवा जाते हैं। कहानी के कई बिंब हालिया लॉकडाउन की व्यथा बताते हैं। कहानी के पात्र मास्टर दीनानाथ प्रथम विश्व युद्ध और कोरोना की तालाबंदी दोनों के परिणाम पर बात करते हैं।

कहानी में लॉकडाउन से ही कुछ अंश शामिल किए गए हैं यथा :

‘जबसे कर्फ्यू लगा है…मास्टर दीनानाथ का मन उदास रहता है। लॉकडाउन की वजह से पूरा परिवार घर पर है…। मगर सब पास होकर भी दूर हैं। कोई बिना काम अपने कमरे से बाहर ही नहीं निकलता है। ये कैसा कर्फ्यू है… जो बाजार-चौराहे से होता हुआ घर के भीतर भी घुस गया है…। मास्टर दीनानाथ को ऐसा कर्फ्यू कतई पसंद नहीं है …अपनी आजादी पर पहरा किसे पसंद है भाई। इस शहर में कर्फ्यू कोई पहली बार थोड़े लगा है…।

यहां तो तीन बार पहले भी कर्फ्यू लग चुका है…पुलिस की गोलियां चली, लोगों की मौत हुई, तब कहीं जाकर कर्फ्यू लगा था। सात-आठ दिन तक शहर फौज के हवाले रहा है…। मगर यह कर्फ्यू तो गली-मुहल्ले से होता हुआ घर की दहलीज पार कर कमरे में डेरा डाल कर बैठ गया है। मास्टर दीनानाथ को वह दिन भी याद है जब पहली बार उनके शहर में कर्फ्यू लगा था…। उनके मोहल्ले की औरतें सजधज कर बाजार में कर्फ्यू देखने निकल पड़ी थी। उनके हिसाब से शायद कर्फ्यू भी देखने की चीज होगी… अपने शहर में तो पहली बार लगा है, देखना तो चाहिए…नहीं तो दोहते-पोतों को कैसे बताएंगे कि कर्फ्यू कैसा होता है। भोला था जमाना और भोले-भाले लोग… यह तो किसी ने रास्ते में ही रोक दिया …कर्फ्यू कोई देखने की चीज है? बाहर फौज का पहरा लगा है…गोली से उड़ा देंगे सबको। फौज वालों को सात खून माफ होते हैं…। इतना सुनकर मोहल्ले की औरतें तो डर के मारे वापस लौट गई थी…पर शरारती बच्चे भला कहां मानने वाले थे। वे गली के मुहाने से छुप-छुप कर कर्फ्यू का नजारा देखने लगे…यह उनके लिए नया खेल था। सुनसान सड़कों पर फौजियों की गाडि़यां दौड़ रही थी…हाथों में बंदूकें थामें फौजी कतारबद्ध एक-दूसरे के पीछे चल रहे थे। हर चौराहे पर सैनिक तैनात थे। अचानक… बच्चों को न जाने क्या सूझी, वे अपनी मस्ती में खेलते हुए बाजार की ओर दौड़ पड़े…। बस फिर क्या था…चौराहे पर खड़े फौजी ने जोर से आवाज लगाई – हॉल्ट…वहीं रुक जाओ, हाथ ऊपर करो। अब बच्चों की डर के मारे घिग्गी बंध गई थी। चुपचाप कान पकड़ कर खड़े हो गए। तब तक फौजियों का बड़ा अफसर भी आ गया था। वह जानता था बच्चे हैं, खेलने-कूदने आए हैं, पर कर्फ्यू का उल्लंघन बर्दाश्त नहीं। उसने पहली बार तो समझा-बुझा कर वापस भेज दिया।

मगर बच्चों के लिए अब कर्फ्यू तोड़ना भी खेल हो गया था। वे चौराहे पर रोज चले आते, फौजियों के कहने से पहले ही हाथ ऊपर कर देते, तो कोई मुर्गा बन जाता… कुछ देर उसी हालत में रहने के बाद चेतावनी देकर वापस भेज देते। बच्चों के लिए कर्फ्यू न हुआ, चौहटे की जातर हो गई…दौड़ कर गए, देवताओं के आगे मत्था टेका और वापस घर आ गए। लेकिन यह तो गजब का कर्फ्यू है…इसकी न कोई वजह और न ही कोई समय सीमा है। शहर में न कोई गोली चली, न दंगे भड़के, न लूटपाट हुई और न ही आगजनी हुई…फिर भी सब कुछ बंद, लोग घरों में कैद और मास्टर दीनानाथ परेशान। कहते हैं कोई महामारी फैली है…दूसरे देश से चलकर यहां आई है, जो बड़ी तेजी से फैल रही है। सावधान…। यहां कभी भी धावा बोल सकती है…। बीमारी न हुई मारंड…घोघड़ा हो गई। बचपन में मां डराया करती थी- सो जाओ नहीं तो घोघड़ा आ जाएगा। वो घोघड़ा कभी नहीं आया और न ही वे अपनी शरारतों से बाज आए। मास्टर दीनानाथ को शायर बशीर बद्र याद आ गए। क्या इसी दिन के लिए लिख रखी थी वो गज़ल-

यूं ही बे-सबब न फिरा करो, कोई शाम घर में भी रहा करो,

वो गज़ल की सच्ची किताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो,

कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से,

ये नये मिज़ाज का शहर है, ज़रा फासले से मिला करो।

कर्फ्यू का ऐलान क्या हुआ…शहर तो शहर… घर में भी सन्नाटा पसर गया है। अब ये खामोशी धीरे-धीरे उदासी में बदलती जा रही है। इस उदासी के बीच मोर, कोयल और चीडि़यों की चहचहाट सुकून देती है…पर कर्फ्यू तो आदमी की आजादी पर सीधा हमला है। लेकिन इसके लिए जिम्मेदार कौन है? वर्ष 1918…। आज से कोई एक सौ-दो साल पहले प्रथम विश्व युद्ध का दौर। यह युद्ध हमारा नहीं था… पर अंग्रेजों की सेना में भारतीय सिपाही शामिल थे, जिन्हें जहाज में भर कर विदेशी मोर्चे पर खड़ा कर दिया था दूसरों के लिए लड़ने को। उन दिनों हिंदुस्तान पर ब्रिटिश हुकूमत थी…भारतीय उनके गुलाम थे…अब गुलाम तो गुलाम ठहरे, उनसे चाहे अपने ही लोगों पर जुर्म करवा लो, चाहे …विदेशी मोर्चे पर खड़ा कर दो। उन्हें तो अपने हुकमरानों का आदेश मानना था। मास्टर दीनानाथ की नज़रें डायरी के पन्नों पर फिसलती चली जाती हैं…। उनके दिमाग में महामारी को लेकर उथल-पुथल मची हुई थी। ये कैसा वायरस है जिसने देखते ही देखते पूरी दुनिया को अपने पंजे में जकड़ लिया। कई बड़ी-बड़ी महाशक्तियों को घुटनों के बल खड़ा कर दिया है। मास्टर दीनानाथ व्यग्रतापूर्वक डायरी के पन्ने बदलते जाते हैं। उन्हें क्या मालूम था कि यूं ही अपनी याददाश्त के लिए लिखी यह डायरी आज उनके लिए इतनी महत्त्वपूर्ण साबित होगी। वर्षों पहले लिखी यह डायरी आज उन्हें लाल किताब की तरह लग रही है…।

डायरी का हर पन्ना उन्हें अतीत के झरोखे झांकने में मदद कर रहा है और वे पन्नों पर बिखरे शब्दों की उंगली थाम कर उस कालखंड में पहुंच जाते हैं। वे देखते हैं कि किस तरह प्रथम विश्व युद्ध की विभीषिका के बीच भारतीय सैनिकों को समुद्री जहाज में भरकर यूरोप की धरती पर मोर्चे पर उतारा जा रहा था…यही नहीं, भारतीयों के अलावा नेपाल से भी भारी संख्या में गोरखा सैनिकों को अंग्रेजों को खुश करने के लिए इस यूरोपीय महासमर में ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा के लिए झोंक दिया गया। यह सब लेखा-जोखा मास्टर दीनानाथ की डायरी में दर्ज था।’ मुरारी शर्मा की यही खासियत है कि वे अपनी कहानी के पात्रों को सामाजिक वक्ता बना देते हैं। इन्हीं चरित्रों के माध्यम से वे पूरी व्यवस्था को भी संबोधित करते हैं।

दुख के ऐसे ही बुचके बांधे आए थे वे शहर

आत्मा रंजन

मो.-9418450763

देश के तमाम महानगरों को अपने खून-पसीने से सींचते रहे मजदूर कोरोना काल में ऐसे पौंछ दिए गए जैसे किसी के शरीर में कोढ़ निकल आया हो। दर-ब-दर कर दिए गए ये श्रमिक जब वतन वापसी पर निकले तो इसी दौरान इतिहास भी लिखा गया औैर नए साहित्य का भी जन्म हुआ। वरिष्ठ साहित्यकार आत्मा रंजन ने कोरोना काल में हजारों सिसकियां सुनीं, छिलते पांव देखे और खून सने छाले भी उन्होेेंने महसूस किए। महा नगरों से होते महा पलायन के एहसास को उन्होंने अपनी एक रचना के जरिए शब्दबद्ध किया। हिमाचल में अग्रणी पंक्ति के लेखक आत्मा रंजन ने कोरोना काल में बेहद संवेदनशील एक लंबी कविता लिखी है। पेश हैं, इसी से कुछ काव्यांश :

ठठरियों पर गठरियां लादे यह जनसैलाब

किसी पिकनिक पर नहीं निकला है मेरे कुलीन दोस्त

किसी विरोधी दल के आह्वान पर भी नहीं

जुटा है ये जुटान

किसी रैली में ढोकर लाई गई किराए की भीड़ नहीं है ये

सड़क पर पसरी है मौत

यूं ही तो मौत के मुंह में नहीं झौंकता है कोई खुद को

इस जनसैलाब को समझो मेरे देश!

टीवी पर पसरे राम राज्य की मुग्धता के बीच

कहां समझा जा सकता है इसे !

दुख के ऐसे ही अतिरेक में

दुख के ऐसे ही बुचके बांधे आए थे वे शहर

फर्क इतना था कि तब बेहतर होने की उम्मीद साथ थी

आज नाउम्मिदी और विकल्पहीनता 

लौट रहे वे वहीं जहां से आती रही हैं अक्सर

आत्महत्या की फसल उगाही की भी खबरें

वे लौट रहे हैं इस विपद समय में

सिर पर लादे दुख की गठरियां

तिरस्कारों दुत्कारों बीच

छिपाते दबाते अपनी सिसकियां

पिराती देह और आत्मा संग

बुलेट ट्रेन रफ्तार वाले समय में

सैकड़ों मील पैदल पांव 

यूं लुटे पिटे सा यह लौटना बदहाल

गांव से शहर होते निरंतर

हमारे सभ्यता विकास का

चरित्र भी है और निष्कर्ष भी!

हार कर भी जीतता रहा है आदमी

डा. विनोद प्रकाश गुप्ता ‘शलभ’

मो.-9811169069

कोरोना वायरस साहित्यकार की कलम को निष्क्रिय नहीं कर सकता, न ही आम आदमी की संकट से लडऩे की इच्छा को शिथिल कर सकता है। साहित्यकार डा. विनोद प्रकाश गुप्ता ‘शलभÓ ने लॉकडाउन में जो सृजन कर दिखाया है, वह इस बात की गवाही देता है। उन्होंने अपनी गज़़ल में जिस मानव का सृजन किया है, वह भी संकट के सामने डटा दिखाई देता है। डा. विनोद कहते हैं कि जब से कोरोना त्रासदी के चलते घर में कैद हुए हैं, तभी से साहित्यिक सृजन का नया दौर शुरू हो गया था और अनवरत चल रहा है। इस दौरान उन्हें कहानियां लिखने की प्रेरणा मिली। अभी तक लगभग दस कहानियों के प्रारूप तैयार कर लिए हैं जिन्हें शीघ्र ही पूर्ण करने की कोशिश में हैं। वर्ष 2019 में उनके  प्रथम गज़़ल संग्रह ‘आओ नई सहर का नया शम्स रोक लेंÓ का लोकार्पण हुआ था। लॉकडाउन में उन्होंने अपने दूसरे गज़़ल संग्रह ‘बूंद-बूंद गज़़ल को पूरा करने का संकल्प लिया। कोरोना काल के दौरान उन्होंने अभी तक तकरीबन 83 गज़़लें पूरी कर ली हैं तथा निरंतर दो-तीन दिन में एक नई गज़़ल का सृजन कर रहे हैं। आशा है कि वह अगस्त 2020 तक 101 गज़़ल का संग्रह पूरा करने का कार्य संपन्न कर लेंगे। यहां पेश है 31 मई 2020 को कही एक गज़़ल जो उपरोक्त गज़़ल संग्रह का हिस्सा होगी। इसमें संकट के बावजूद मानव की जिजीविषा की झलक देखी जा सकती है :

जि़ंदगी की दौड़ में जब-जब थका है आदमी,

गिर के संभला, फिर उठा, उठ के चला है आदमी।

कितने युग आए हैं कितने और आएंगे अभी,

भाग्य अपना ख़ुद ही तो लिखता रहा है आदमी।

आंधियां तूफ़ान कितने अनगिनत बीमारियां,

सब हराता मुस्कुराता हौसला है आदमी।

मौत है नश्वर हक़ीक़त हारती है अनवरत,

जि़ंदगी से जि़ंदगी का सिलसिला है आदमी।

सारे पैग़म्बर निरर्थक कोई ईश्वर ही नहीं,

ख़ुद ही पैदा हो के, ख़ुद ही तो मिटा है आदमी।

सब चमत्कारों का ज्ञाता सब वजूदों का वजूद,

कहकशां का सबसे अद्भुत मोजि़ज़ा है आदमी।

घूमते हैं चांद तारे घूमता ब्रह्माण्ड भी,

इस धरा का इक अकेला क़ा़िफला है आदमी।

सांस है रेशम की डोरी टूट जाए भी तो क्या,

इक जनम से दूसरे का राबिता है आदमी।

ऐ ‘शलभ’! इस आदमी का है नहीं कोई विकल्प,

सारे जीवन सत्य की ही प्रेरणा है आदमी।


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