निजीकरण देशहित में नहीं है

By: Jul 16th, 2020 12:05 am

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काहन सिंह ठाकुर

सेवानिवृत्त सूबेदार

निजीकरण व्यवस्था नहीं, बल्कि पुनः रियासतीकरण है, जमींदारी प्रथा का आगमन है। मात्र 70 साल में ही बाजी पलट गई। जहां से चले थे उसी जगह पहुंच रहे हैं हम, फर्क सिर्फ  इतना कि दूसरा रास्ता चुना गया है और इसके परिणाम भी ज्यादा गंभीर होंगे। 1947 में जब देश आजाद हुआ था, नई नवेली सरकार और उनके मंत्री देश की रियासतों को आजाद भारत का हिस्सा बनाने के लिए परेशान थे। तकरीबन 562 रियासतों को भारत में मिलाने के लिए साम, दाम, दंड, भेद की नीति अपना कर अपनी कोशिश जारी रखे हुए थे क्योंकि देश की सारी संपत्ति इन्हीं रियासतों के पास थी। कुछ रियासतों ने नखरे भी दिखाए, मगर कूटनीति और चतुरनीति से इन्हें आजाद भारत का हिस्सा बनाकर भारत के नाम से एक स्वतंत्र लोकतंत्र की स्थापना की। और फिर देश की सारी संपत्ति सिमट कर गणतांत्रिक पद्धति वाले संप्रभुता प्राप्त भारत के पास आ गई। धीरे-धीरे रेल, बैंक, कारखानों आदि का राष्ट्रीयकरण किया गया और एक शक्तिशाली भारत का निर्माण हुआ। मात्र 70 साल बाद समय और विचार ने करवट ली है। फासीवादी ताकतें पूंजीवादी व्यवस्था के कंधे पर सवार हो राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन करा रही हैं। लाभ और मुनाफे की विशुद्ध वैचारिक सोच पर आधारित ये सांप्रदायिक दल भारत को फिर से 1947 से पीछे ले जाना चाहते हैं। यानी देश की संपत्ति पुनः रियासतों के पास। लेकिन ये नए रजवाड़े होंगे कुछ पूंजीपति घराने और कुछ बड़े राजनेता। निजीकरण की आड़ में पुनः देश की सारी संपत्ति देश के चंद पूंजीपति घरानों को सौंप देने की कुत्सित चाल चली जा रही है। उसके बाद क्या, निश्चित ही लोकतंत्र का वजूद खत्म हो जाएगा। देश उन पूंजीपतियों के अधीन होगा जो परिवर्तित रजवाड़े की शक्ल में सामने उभर कर आएंगे। शायद रजवाड़े से ज्यादा बेरहम और सख्त। सवाल है कि सरकार घाटे का बहाना बना कर सरकारी संस्थानो को बेच क्यों रही है? अगर प्रबंधन सही नहीं तो सही करे। भागने से तो काम नहीं चलेगा। यह एक साजिश के तहत सुनियोजित तरीके से किया जा रहा है। पहले सरकारी संस्थानों को ठीक से काम न करने दो, फिर बदनाम करो, जिससे निजीकरण करने पर कोई बोले नहीं। फिर धीरे से अपने आकाओं को बेच दो जिन्होंने चुनाव के भारी-भरकम खर्च की फंडिंग की है। आइए निजीकरण का विरोध करें। सरकार को एहसास कराएं कि वह अपनी जिम्मेदारियों से भागे नहीं। सरकारी संपत्तियों को बेचे नहीं। अगर कहीं घाटा है तो प्रबंधन ठीक से करे। वैसे भी सरकार का काम सामाजिक होता है, मुनाफाखोरी नहीं। अगर निजीकरण की प्रक्रिया इसी तरह जारी रही तो हो सकता है कल सरकारी स्कूलों, कालेजों और अस्पतालों का भी निजीकरण हो जाए। सोचने वाली बात यह है कि ऐसी स्थिति में जनता का क्या होगा। इसलिए निजीकरण देश हित में नहीं है। निजीकरण के कारण हरेक उत्पाद और सेवा का महंगा होना लाजिमी है। अतः यह समय है जब हमें निजीकरण की समर्थक इस सरकार पर अंकुश लगाना होगा।


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