पुलिस कार्यप्रणाली और मानव अधिकार संस्थाएं

By: Jul 27th, 2020 12:07 am

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राजेंद्र मोहन शर्मा

रिटायर्ड डीआईजी

इसी तरह हाल ही में उत्तर प्रदेश में विकास दुबे नामक गैंगस्टर ने पुलिस के आठ अधिकारियों की हत्या कर दी तथा इस घिनौनी घटना के संबंध में किसी भी संस्था ने अपना मुंह नहीं खोला। जब पुलिस ने विकास दुबे व उसके पांच अन्य साथियों को अलग-अलग मुठभेड़ों में मार गिराया, तब यह सभी संस्थाएं पुलिस की ज्यादतियों का ढिंढोरा पीटने लग पड़ी। यदि इन सभी से जरा यह पूछ लिया जाए कि अगर उनकी मां, बहन, बेटी के साथ ऐसी शर्मनाक व खौफनाक घटना घटी होती तो क्या वे उस समय भी यह चाहते कि पुलिस उन्हें केवल गिरफ्तार करके न्यायालय तक पहुंचा दे, जहां पर दोषियों को सजा मिलते-मिलते बरसों लग जाते…

मानव अधिकारों की रक्षा करना हमारी संस्कृति का अहम हिस्सा रहा है। हमारी परंपराओं में समता, समानता व भ्रातृत्व को स्वीकृति प्राप्त है तथा इन परंपराओं को निरंतर जारी रखना अति आवश्यक है। मानव अधिकारों के संरक्षण के लिए हमारे संविधान में विशेष प्रावधान रखा गया है तथा मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम 1993 का प्रयोजन भी किया गया है। इसी के अंतर्गत मानव अधिकार संस्थाओं की स्थापना करने का प्रावधान भी रखा गया है। पुलिस के जवानों को प्रतिदिन कुरुक्षेत्र की लड़ाई लड़नी पड़ती है तथा दुविधापूर्ण परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है। पुलिस से तो यह अपेक्षा की जाती है कि वह सरकार के एजेंट के रूप में कार्य न करके एक सच्चे हमराज व हमसफर बन कर पीडि़त व्यक्तियों की सेवा करे। परंतु जिस तरह जनता को पुलिस से सहयोग प्राप्त करने की अपेक्षा रहती है, उसी तरह पुलिस को भी जनता से सहयोग प्राप्त करने की अपेक्षा रहती है।

पुलिस को दोहरी नंगी तलवार पर चलना पड़ता है, जो दोनों तरफ  से काटती है। यदि पुलिस कानून के अनुसार ही कार्य करे जो कि अपेक्षित भी है तथा अपराधियों के साथ सख्ती से पेश न आए तो जनता यह सोचना शुरू कर देती है कि पुलिस अपराधियों के साथ मिल कर केस को रफा-दफा करना चाहती है और जब कानून से ऊपर उठ कर अपराधियों के ऊपर हाथ उठाती है तो सभी बुद्धिजीवी लोग व मानव अधिकार संस्थाएं पुलिस को जवाबदेह बनाना शुरू कर देते हैं। ऐसे में पुलिस की स्थिति सांप के मुंह में छिपकली की तरह हो जाती है। यह सच है कि पुलिस ज्यादतियां भी करती रहती है तथा आरोपियों व पीडि़त व्यक्तियों को किसी राजनीतिज्ञ या फिर अपनी मनचाहत की वजह से बेवजह प्रताडि़त करने में भी पीछे नहीं रहती, मगर अब समय के बदलने से पुलिस विभाग में पढ़े-लिखे युवक भर्ती होकर आ रहे हैं तथा ट्रेनिंग के दौरान उन्हें एक अच्छा इनसान बना कर भेजा जाता है, मगर समाज में ऐसे लोग जो भ्रष्टाचार के संक्रामक हैं, पुलिस को भी संक्रमित कर देते हैं। माननीय सर्वोच्च न्यायालय भी समय-समय पर स्पष्ट निर्देश देता रहता है जिससे अब पुलिस की कार्यप्रणाली में काफी पारदर्शिता देखने को मिलती है।

पुलिस के हर कार्य को संदेह की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि ऐसी घटनाएं जिसमें समाज का हित दिखाई दे रहा हो, वहां पर पुलिसवालों को शाबाशी देकर उनका मनोबल बढ़ाना चाहिए। इस संबंध में कुछ एक ऐसे उदाहरण हैं जहां पर पुलिस ने अच्छा कार्य किया, मगर उनकी कार्यप्रणाली को संदेह के कटघरे पर खड़ा करके उसे बदनाम करने के प्रयास किए जाते रहे हैं। दिसंबर 2019 में तेलंगाना में जब एक महिला डाक्टर के साथ चार दरिंदों ने बलात्कार करने के उपरांत उसका बेरहमी से कत्ल कर दिया, तब सभी लोगों ने पुलिस की लाचारगी पर बहुत हल्ला मचाया और जब पुलिस ने मुठभेड़ में इन चारों को मार गिराया, तब यह सभी संस्थाएं, कुछ वकील व कुछ बुद्धिजीवी लोग सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगाने चले गए। इसी तरह हाल ही में उत्तर प्रदेश में विकास दुबे नामक गैंगस्टर ने पुलिस के आठ अधिकारियों की हत्या कर दी तथा इस घिनौनी घटना के संबंध में किसी भी संस्था ने अपना मुंह नहीं खोला। जब पुलिस ने विकास दुबे व उसके पांच अन्य साथियों को अलग-अलग मुठभेड़ों में मार गिराया, तब यह सभी संस्थाएं पुलिस की ज्यादतियों का ढिंढोरा पीटने लग पड़ी।

यदि इन सभी से जरा यह पूछ लिया जाए कि अगर उनकी मां, बहन, बेटी के साथ ऐसी शर्मनाक व खौफनाक घटना घटी होती तो क्या वे उस समय भी यह चाहते कि पुलिस उन्हें केवल गिरफ्तार करके न्यायालय तक पहुंचा दे, जहां पर निर्भया हत्याकांड की तरह दोषियों को सजा मिलते-मिलते बरसों लग जाते तथा यह भी जरूरी नहीं कि उन्हें सजा मिल पाती। ऐसी खौफनाक घटनाओं में भी ऐसे लोगों की नसों में खून का प्रवाह नहीं हो पाता, चुपचाप एक रैफरी की तरह काम करते रहते हैं। माना कि पुलिस ने झूठी मुठभेड़ की है तो उसकी उच्चस्तरीय जांच होती है और उसके निर्णय का इंतजार किए बिना ही अपना एकपक्षीय विचार रखना ठीक नहीं होता है।

इसी तरह शाहीन बाग के दंगों में पुलिस वालों की वर्दियां फाड़ दी गई तथा जिसमें कई जवान घायल व शहीद हुए। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की घटना का सबको पता है कि किस तरह टुकड़े टुकड़े गैंग के सदस्यों ने देश विरोधी नारे लगाए। जब उन्हें नियंत्रण में रखने के लिए पुलिस ने लाठी का प्रयोग किया तब ऐसा लगता था जैसे कि लाठियां इन संस्थाओं के लोगों के सिर पर लग रही हैं। हम सभी को यह नहीं भूलना चाहिए कि बम व गोली से रक्षा हाथ खड़े करके नहीं की जा सकती, उसको रोकने के लिए बल के प्रयोग की आवश्यकता ही होती है। वास्तव में जरूरत इस बात की है कि पुलिस के दर्द को भी समझा जाए।


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