स्वदेशी टीके पर सवाल

By: Jul 7th, 2020 12:05 am

भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने घोषणा की थी कि 15 अगस्त, स्वतंत्रता दिवस, पर कोरोना वायरस का स्वदेशी टीका आ सकता है। देश के कुछ शीर्ष वैज्ञानिकों और चिकित्सा विशेषज्ञों ने उस दावेनुमा घोषणा और समय-सीमा को ‘बेतुका’ और ‘अवास्तविक’ करार दिया था। सवाल उठाए गए कि आईसीएमआर के पास ऐसी कौन-सी ‘जादू की छड़ी’ है कि 45 दिन में ही कोरोना का टीका बाजार में होगा? यदि ऐसा होता है, तो कदाचित यह विश्व का पहला टीका होगा, जो कोरोना के खिलाफ  इनसानी जिंदगी को बचाने में सक्षम होगा। बेशक भारत सरकार के संस्थान आईसीएमआर का वैश्विक दर्जा है और वह किसी भी दबाव या आग्रह के मद्देनजर अपनी छवि से खिलवाड़ नहीं करेगा, लेकिन आईसीएमआर के महानिदेशक डा. बलराम भार्गव ने दो जुलाई को उन 12 अस्पतालों को पत्र लिखा था, जो प्रस्तावित कोरोना टीका के क्लीनिकल ट्रायल के लिए चुने गए हैं। अब इस मुद्दे पर विवाद और सवालों के अंधड़ इस कदर चल पड़े हैं कि आईसीएमआर को सफाई देनी पड़ी है। सबसे अहम सवाल समय-सीमा, जल्दबाजी और हड़बड़ी को लेकर हैं, क्योंकि टीका एक वैश्विक महामारी के खिलाफ  बनाया जा रहा है और बुनियादी दायित्व इनसानी जिंदगी को बचाने का है। वैज्ञानिकों और चिकित्सकों ने जिज्ञासा व्यक्त करते हुए सवाल उठाए हैं कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शोधार्थी और दवा कंपनियां बीते 8-10 सालों से लगातार अनुसंधान प्रक्रिया में जुटे हैं, लेकिन अब भी दावा नहीं किया जा सकता कि दुनिया के सबसे खतरनाक और जानलेवा वायरस के खिलाफ  टीका बनाने की स्थिति आ गई है या किसी औषधि का सुराग मिल गया है! तो फिर आईसीएमआर और उसके सहयोगी 45 दिनों में ही, ट्रायल करने के बाद, कोरोना वायरस का टीका कैसे बना लेंगे? क्या इतने से अंतराल में ही ट्रायल के कमोबेश तीन चरण पूरे किए जा सकते हैं? स्वदेशी टीका बनने के बाद इनसानी जिंदगी की सुरक्षा की कितनी गारंटी दी जा सकती है? क्या टीके की गुणवत्ता से कोई समझौता किया जा रहा है? क्या आईसीएमआर और उसके सहयोगी दवा-निर्माण और उत्पादन के अंतरराष्ट्रीय मानकों का पालन कर रहे हैं? अहम और संवेदनशील सवाल यह है कि क्या आईसीएमआर और उसकी वैज्ञानिक शोध-प्रक्रिया पर कोई राजनीतिक दबाव है? हालांकि आईसीएमआर ने सफाई में एक और बयान जारी किया है कि लालफीताशाही फिजूल में ही अड़चनें न डाले, इस मकसद से पहले वाला पत्र लिखा गया था। मकसद यह भी था कि आवश्यक प्रक्रिया को दरकिनार किए बिना ही ट्रायल किए जा सकें और प्रतिभागियों की भर्ती तेजी से की जा सके, लेकिन आईसीएमआर उन लोगों की सूचित सहमति के मुद्दे पर खामोश है, जिन पर ट्रायल किए जाने हैं या किए जा रहे हैं। गौरतलब यह है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इसी तरह एचपीवी के लिए क्लीनिकल ट्रायल पर रोक लगा दी थी। वह ट्रायल महिलाओं में सर्विकल कैंसर के मद्देनजर किए जा रहे थे। आंध्रप्रदेश और गुजरात की करीब 24,000 आदिवासी लड़कियों पर प्रस्तावित टीके के ट्रायल किए गए थे। हालांकि ट्रायल को दवा महानियंत्रक, भारत सरकार की अनुमति दी गई थी, लेकिन अनैतिक प्रक्रियाओं के भी आरोप लगे थे। अंततः सर्वोच्च अदालत ने मानवता के पक्ष में उन ट्रायलों पर रोक लगा दी और आदिवासी लड़कियां शोषण से बच गईं। कोरोना वायरस को हम ऐसा प्रयास नहीं मान रहे हैं और चिकित्सा अनुसंधान के शीर्ष संस्थान को ‘खलनायक’ करार नहीं दे रहे हैं। बुनियादी सवाल इनसानी जिंदगी से जुड़ा है और देश ऐसे सवालों से आश्वस्त होना चाहता है कि हड़बड़ी में कहीं उससे समझौता तो नहीं किया जा रहा है? स्वाइन फ्लू के एक टीके के कारण करीब 500 मरीजों को लकवे जैसी बीमारी ने जकड़ लिया था और 25 मौतें भी हुई थीं। गुस्से में पीडि़तों ने अमरीकी सरकार से मुआवजे के लिए मुकदमे दायर किए थे। हमारी चिंता भी ऐसी ही है। हालांकि दवा महानियंत्रक ने एक विशेष कमेटी भी बनाई है, जिसमें विशेषज्ञ ही होंगे। उनकी सम्यक जांच और विश्लेषण के बाद ही टीके का उत्पादन संभव होगा। फिर भी जल्दबाजी और थोड़ी-सी समय-सीमा के कारण देश की चिंता और जिज्ञासा अपनी जगह महत्त्वपूर्ण है।


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