ऊहापोह की आर्थिकी

By: Jul 4th, 2020 12:05 am

कोरोना काल ने तीन क्षेत्रों में हिमाचल सरकार के साहस व सामर्थ्य की परीक्षा ली है, लिहाजा इस संदर्भ के हर फैसले की अहमियत भविष्य साबित करेगा। हिमाचल के वर्तमान परिदृश्य में जो फैसले आए हैं उनमें पर्यटन, परिवहन और शिक्षा के क्षेत्र का भविष्य नत्थी है। परिवहन विभाग की समीक्षा बैठक इस दिशा में जो संकेत देती है,तो यह भी समझा जाएगा कि प्रदेश सरकार वास्तव में करना क्या चाहती है। सर्वप्रथम उस जद्दोजहद को देखना होगा जो हिमाचल में निजी क्षेत्र के प्रति सरकार के किंतु-परंतु से बाहर नहीं निकलती। भले ही सरकार की उदारता अब बसों को इनकी पूरी यात्री क्षमता में दौड़ाने की अनुमति दे दे, लेकिन केवल इसी फैसले से परिवहन की अड़चने हट जाएंगी या निजी बस मालिक अपने बंधन खोल कर  वाहनों की गति बढ़ा देंगे,ऐसी खुशफहमी पालना सही नहीं। वास्तव में चुनौती तो यात्री को बस में बिठाने की है या यह विश्वास दिलाने की है कि बसों के भीतर अति सुरक्षित व्यवस्था हर सूरत बरकरार रहेगी। क्या सौ फीसदी क्षमता से बसें दौड़ाने की छूट दी जा सकती है और अगर यह फैसला सही है,तो सिनेमा हाल खोलने में क्या दिक्कत या रेस्तरां को भी यही छूट दे देनी चाहिए। दरअसल सरकार का परिवहन विभाग इस ऊहापोह में रहा है कि किसी भी सूरत बस किराया न बढ़ाया जाए,जबकि इस समय उपभोक्ता विश्वास को अर्जित करने के महंगे उपाय भी मानवीय जरूरतों के लिए वरदान साबित होंगे। उदाहरण के लिए लगभग तीन महीने तक हेयर या ब्यूटी सैलून से दूर रहे उपभोक्ता अगर अब चिकित्सकीय शर्तों के चलते सौ से डेढ़ सौ प्रतिशत अधिक दाम चुका रहे हैं,तो यह हर व्यवसाय की आधारभूत जरूरत है। आज की तारीख में जो लोग बसों में नहीं बैठ रहे या बाजार की गतिविधियों से दूर बैठे हैं, उन्हें यह विश्वास दिलाना होगा कि कुछ आवश्यक उपाय करके हम धीरे-धीरे पुरानी स्थिति में लौट पाएंगे। जो लोग आज अपने निजी वाहनों में अधिक व्यय करके सफर कर रहे हैं,उससे यात्री मानसिकता समझनी चाहिए। सरकार का यह फैसला कई अंतर्विरोध पैदा कर रहा है। अगर शादी,बारात और बैंड-बाजा की शर्तें कुछ सीमित संदर्भों के फरमान जारी कर रही हैं, तो बस के भीतर शर्तोें की अफरातफरी क्यों। कहीं निजी बस मालिकों को नीचा दिखाने या उनकी न्यायाचित मांग को अंगूठा दिखाने के लिए ही तो यह फैसला न ले लिया हो ताकि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। अगर लाठी का आशय बस किराया वृद्धि न करने का राजनीतिक स्वार्थ है, तो सरकार निजी क्षेत्र की आर्थिकी को पुनः बहाल करने का सही संदेश नहीं दे रही। यह राज्य के सकल घरेलू उत्पाद के खिलाफ भी साबित होगा कि परिवहन के साथ-साथ पर्यटन जैसे क्षेत्र को फिर से चलाने के लिए राजनीतिक पसंद खड़ी हो जाए। आर्थिकी चलाने के लिए कुछ समय के लिए राजनीतिक फायदे छोड़ने होंगे, वरना आज निजी बस सेवाएं तबाह होंगी, तो कल पूरा पर्यटन परास्त होगा। कुछ इसी तरह हिमाचल के निजी स्कूलों में भी फीस अदायगी को लेकर सरकार का रवैया ढुलमुल रहा है। अगर प्रदेश का राजनीतिक नेतृत्व यह समझता है कि कोरोना काल से बाहर निकलने की कोई कीमत अदा नहीं करनी पड़ेगी या इस दौर में भी सरकार की छवि उदारता से भरी रहेगी, तो यह नामुमकिन है। अब केवल कठोर कदम ही तमाम वर्जनाओं को तोड़ेंगे, इसलिए हिमाचल की सोच को पुराने ढर्रों से बाहर लाने के साथ-साथ यह भी तय करना है कि सामाजिक सहयोग भी मुश्किल घड़ी के हर पहलू पर निर्णायक भूमिका अदा करे। हिमाचल का एक बड़ा वर्ग नौकरी पेशा, पेंशनधारक, सैनिक या पूर्व सैनिक होने के नाते ऐसी क्षमता रखता है कि आर्थिक कठिनाइयों का यह दौर साझा किया जाए। मसला न्यूनतम किराए को दस रुपए तक ले जाने में भी अगर आर्थिक जरूरतों को नहीं पहचानता, तो शायद कोरोना काल की गफलत में प्रदेश अपनी हकीकत को नजरअंदाज कर रहा है। यह यथार्थवादी दृष्टिकोण कतई साबित नहीं होगा कि एक ओर विवाह-शादियों में तो पचास लोगों से अधिक की भीड़ में भी अपराध ढूंढा जाए और इधर बस के भीतर ठूंस कर भी यात्रियों के लिए सोशल डिस्टेंसिंग का खतरा न समझा जाए।


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